सामाजिक

कठपुतली स्त्री 

कुछ वर्षों  से महिला वस्त्रों व स्वतंत्रता की चर्चा जोरो पर रहती हैं लेकिन मंत्री महोदय द्वारा की गई टिप्पणी के बाद तरह तरह के मोर्चे बनाए पक्ष व विपक्ष में महिलाएं खड़ी हैं। किसी किसी पोस्ट पर पुरुष भी उनके साथ खड़े मिलते हैं लेकिन मुझे यह बात समझ आई कि हम हमारी समस्या हमारे विवेक व परिस्थतियों के अनुसार सुलझाने की बजाय पड़ोसियों की ओर ताकते हैं कि उनके घर में ऐसा नही हुआ हमारे घर में क्यो हो रहा है? उनकी फ़ला-फला समस्या का यह हल है तो हमारा भी यही हल होना चाहिए।
क्या आप कोई देख कर आएं हैं उस देश की परिस्थितियां सभ्यता संस्कृति के अंदर का लावा कितना गर्म है? अमेरिका ,यूरोप या लेटिन अमरिकन देशों के बारे में कहते है कि वहाँ बलात्कार नही होता, महिलाएं रात को सुरक्षित हैं। किसने कहा,वहां बलात्कार नही होता? बस वहां खुलापन ज्यादा है इसलिए छोटी उम्र से ही लड़के लडकियां पार्टनर चुन लेते है औऱ अपनी कामेच्छा पूर्ति में पाबन्दी नही है। इसका परिणाम अवैध संतति की बहुतायत मिलती है वहां। लेकिन उस देश का कानून या व्यवस्था  ऐसी है कि उन्होंने उन बच्चो के पालन पोषण या भविष्य की व्यवस्था कर  रखी है। वहां संसाधन अधिक व जनसंख्या कम है। रही बात बलात्कार की। बलात्कार वहां भी होते हैं। शुगर डेटिंग की प्रथा लेटिन अमेरिकी देशों में काली सच्चाई है।
अब आते है हमारे देश पर, यहाँ की सभ्यता बहुत पुरानी है। एक युग ऐसा भी था जब आदिम युग में सब खुला हुआ था। लोगों के पास वस्त्र नाम की चीज थी ही नहीं तो वे लपेटे क्या? पशुओं की तरह उनमें भी समय विशेष पर ही यौनिच्छा होती होगी जिसे आपसी सहमति से पूरा किया जाता होगा लेकिन जैसा कि हम जानते है कि चेतना के स्तर पर ही मानव अन्य प्रजातियों से भिन्न है और चेतना के विकास के साथ ही मानव को अनुभव हुआ होगा कि इस खुले यौनाचार के परिणाम स्वरूप बढ़ते व्यभिचार व अनाचार को रोकने के लिए कुछ नियम कानून बनाने होंगे। और उसी के परिणाम स्वरूप विवाह व समाज नामक संस्था बनी। धीरे धीरे विकसित सामाजिक व्यवस्था में पुरुष प्रधान समाज की वजह से स्त्री की स्थिति दोयम दर्जे की होती गई। और कालांतर में स्त्री घूंघट व बुर्के में आ गई। परिवार में भी स्त्री कभी सुरक्षित नही रही क्योंकि धीरे धीरे उसे इतना कमजोर व परवश कर दिया गया था कि वह हर तरह के शोषण का शिकार होती रही। कालांतर में उसने यही अपनी नियति मानकर  खुद को वैसा ही  मान लिया।
बदलते समय में जब शिक्षा का विकास हुआ तब स्त्रियां खुद के प्रति जागरूक होने लगीं व खुद के लिए लड़ने लगीं लेकिन यहां भी वे जीतने के बजाय चंगुल में फंसती नजर आईं और जब आज का कंप्यूटर युग आया तब सही मायनों में उनकी वही स्वतंत्रता उनकी परतंत्रता बनने लगी। मॉडल्स  या अभिनेत्रियों के जो शोषण होता रहा है वह हम किसी से छिपा नहीं है। वीडियो कसेट्स के जमाने से जब से ब्लू फिल्में आई उसके बाद समाज की मानसिकता भी स्त्री को लेकर और खराब होती गई।
अब पोर्न साइट्स व विज्ञापनों ने किशोर जगत की यौन भावनाओ को भड़काने में आग का काम किया।
लोग तर्क देते हैं कि पहनावा बलात्कार के लिए जिम्मेदार होता तो छोटी बच्चियों ने क्या पहन रखा था जो बलात्कारी को उकसाये? यह तर्क देकर शायद हम जान बूझ कर अनजान बनते हैं। जो पुरुष घर मे औरत का दोयम दर्जा देखता है,बाजार में उसके नाम पर खुली गालियां सुनने को मिलती है। और विज्ञापनों में उसके उन्ही अंगों को दिखाया जाता है जिसे घर या समाज में छुपाने की कोशिश की जाती है।
क्या यह भ्रमित इंसान कोई अच्छी सोच का विकास कर सकता है? नहीं,  क्योंकि यहाँ वह महिलाओं व पुरुषों सबको कई वर्गों में खड़ा पाता है जिसमे कुछ लोग उसका समर्थन करते ,दूसरी जगह कुछ लोग महिलाओं का व कुछ उनके वस्त्रों का समर्थन या विरोध करते नज़र आते हैं। जो समाज काफी हद तक  स्त्री के ढके शरीर देखता है उसे ऐसे कम वस्त्र पहने कोई महिला दिखेगी वह उसके लिए कौतूहल व वासना का विषय बन जाता है। जिस महिला ने फटे या कम वस्त्र पहने होते हैं वह स्वाभाविक रूप से खुद को मजबूत मनाती होगी और उस पर सार्वजनिक स्थल पर किसी तरह का आक्रमण करने की हिम्मत इन मनोरोगियों की   नहीं होगी लेकिन इस मानसिकता वाले अपनी उस कुंठा या  दरिंदगी को छोटी बच्ची या बूढ़ी महिलाओं पर  निकालते हैं।
 यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि बलात्कार के लिए केवल वही एक कारण नही है। लेकिन वह एक भी है जिसे हम नजर अंदाज नही कर सकते।
यही मौका होता है जब इस पुरुष प्रधान समाज के चक्रव्यूह में फंसी औरत समझ नही पा रही कि उसे किस  मुद्दे पर लड़ना है किस पर नहीं।
यह मोर्चा उसे सम्भला दिया गया जहां कपड़ो को लेकर उसे भ्रम में डाल दिया गया जबकि उसकी मुहिम चलनी चाहिए थी कि जो अर्धनग्न पुरुष महिलाओं के बीच घूमते है उनके विरुद्ध लड़ाई छेड़े। जो शराब पीकर पत्नियों की कमाई छीन लेते हैं उनके विरुद्ध मुहिम छेड़े।
सम्पन्न परिवारों में जहाँ हर चीज से जल्दी ऊब जाने की प्रवृति दिखाई देती है वहाँ अपने पार्टनर से भी जल्दी ही पुरुष ऊब जाते हैं और फिर शुरू होता है व्यभिचार का गंदा खेल जिसमें पत्नियों की अदला बदली। यहाँ इस गंदी मानसिकता व व्यभिचार का विरोध करने में एक जुटाता आनी चाहिए।
खुद की शक्ति बढ़ाकर वह अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचार व अनाचार को रोक सकती है।
वह खुद को पुरुषों के हाथों का खिलौना बनाने में क्यो विश्वास करती है?
पुरुष की गंदी दृष्टि को साफ करने की बात कहती है। अरे!उस पुरुष की गंदी नजर कैसे साफ होगी जो कंडोम के विज्ञापन में एक महिला को खुला करके दिखायेगा औऱ उस महिला को कैसे कहेगी कि तुम विरोध करो जो पैसे के लिए वह विज्ञापन कर रही है?
उस पुरुष की नजर कैसे सीधी होगी? जो कपड़े की फैक्टरियों में ऐसे कपड़े बना रहा है जिससे स्त्रियों खासकर सेलेब्रिटीज़ का ज्यादा से ज्यादा बदन उघड़ा रहता है और वह खुद की टाँगे भींच कर सिकुड़ी सी एक कठपुतली की तरह उसके इशारों पर किसी शो में चंद पैसों के लिए बैठी होगी।
वह स्त्री उसकी नजरे साफ करने के लिए कैसे लड़ेगी जो किसी लड़की पर हो रहे अत्याचार को रोकने की बजाय खुद उसे ही दोष देगी और पुरुष के अहंकार को पोषित करती हुई कहेगी,”यही व्यवस्था है समाज में इस फ़ला महिला ने इसके विरुद्ध क्यों आवाज उठाई?
वह स्त्री उस पुरुष की नजरें कैसे ठीक करेगी जो अपनी बेटी को हर जगह टोकती है औऱ सक्षम होते हुए भी उसे दबाने की कोशिश करती है और लड़के को कभी नही पूछती कि तुम बिना काम बाहर क्यों घूमते हो?
वह स्त्री कैसे पुरुषों की नजर साफ करने को  कहेगी जो वैश्यावृति का अड्डा चलाने में पुरुषों का सहयोग करती है।
वह स्त्री कैसे उस पुरुष को सुधारेगी जो चंद पैसों के लिए कहीं भी अपना ईमान चरित्र बेच आती है।
वह स्त्री कैसे पुरुषों की नजरें साफ करेगी जो अपनी यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने पति को धोखा देकर मरवा देती है।
 मेरा कहना है हर एक स्त्री से,”स्त्री तुम उस पुरुष के चंगुल में हो जिसने सदियों से तुम्हारा दमन करते हुए तुम्हारी शक्ति को तुम्हारे ही विरुद्ध प्रयोग किया है और तुम उस षड्यंत्र को न  समझकर उसके चंगुल में फंसती जा रही हो।”
पुरुष की नज़र साफ करने का झंडा बुलंद करने वाली औरतों को  समझना चाहिए कि धारा के विरुद्ध बहकर अपनी ऊर्जा खत्म करने के बजाय धारा के साथ बहकर पुरुष को जताए कि मैं भी इस धरती की एक विशिष्ट कृति हूँ, मेरा भी इस जीवन को जीने का उतना ही हक है जितना तुम्हारा।
 आज नहीं तो कल यह बात पुरुष की समझ में आएगी लेकिन उसके लिए तुम्हें तुम्हारे कर्म पाक करने होंगे,खुद को मजबूत बनाना होगा।
 लेकिन अचानक हम कहने लगे कि उसे अपनी नजरें साफ कर लेनी चाहिए।
 अब अंत मे बात आती है फटे व अर्ध नग्न कपड़ों की। क्या आपने किसी ऑफिस में ऐसे कपड़े पहनने की अनुमति देखी है? नहीं, तो फिर सड़क या सार्वजनिक स्थानों पर पुरुष हो या महिला ऐसे अभद्र कपड़े क्यों पहने?
ऑफिस में तो आपको फिर भी आपकी सोच के लोग मिल जाएंगे। खुली सड़क पर चलने वाले अनगिनत लोगों की मानसिकता को बदलने का ठेका आप कैसे ले सकते हैं?
उचित यही होगा कि जीवन मे कौनसे मुद्दों पर हम महिलाओं को लड़ना चाहिए किस पर नहीं यह हमें विवेक से निर्धारित करना चाहिए।
केवल दूसरे देशों या संस्कृति के पीछे आंख मीच कर भागने की बजाय खुद को मजबूत बनाने में अपनी ऊर्जा लगाए व फिर उस पुरुष को बताए कि जितना इस धरती पर तुम्हारा हक़ है उतना ही मेरा है। जो आजादी तुम्हे प्यारी है वह मुझे भी है लेकिन वह कुछ सामाजिक,सांस्कृतिक कानून कायदे के अनुसार ही होने चाहिए क्योंकि हमें इस आधुनिक समाज मे आने तक सदियां लगीं है अब वापिस उसी व्यभिचार व अनाचार वाली जंगली व्यवस्था जीने पर विश्वास है तो फिर इतने विकास का ढोल पीटने का फायदा ही क्या?
जब  महिला ऐसे कपड़े पहन कर निकलती है तो केवल घूमने का मकसद तो नही होगा, कहीं न कही उसकी भी कुछ इच्छा होगी कि उसे कोई देखे और उस पर नजर डालें।
 यदि पुरुष ने अपनी नजरें एक दम पवित्र कर ली और जब महिला ने चाहा कि वह किसी के समागम में आना चाहती है लेकिन तब तक इस पुरुष की नजरें इतनी साफ हो चुकी होंगी कि उसका समागम करने की जगह उसे नपुंसक न सुनने को मिल जाए।
— कुसुम पारीक

कुसुम पारीक

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