सामाजिक

पिताश्री

हमारी संस्कृति ही हमें सिखाती है कि `मातृ देवो भव] पितृ देवो भव’ अर्थात माता-पिता ही भगवान का स्वरूप है. जन्मदाता है, स्वयं परमात्मा है.

जीवन में सदैव मां की ममता की बात रची जाती है. परंतु पिता के त्याग व संघर्ष की बातें बहुत ही कम सुनाई देती है. उनसे महान गुरु हमारे जीवन में उपस्थित है ही नहीं. उनका स्वभाव चाहे निर्मल हो या कठोर, उनकी भावना में सदैव शीतलता वास करती है. एक पिता अपने मन की पीड़ा कभी भी स्पष्ट रूप से सिद्ध नहीं कर पाता कारण है कि स्त्री पीड़ा में रो देती है. परंतु एक पुरुष भी अगर इसी तरह अपना दुख व्यक्त करें तो समाज उन्हें कमजोर समझती है. इससे ज्यादा पीड़ादायक कोई बात हो ही नहीं सकती की एक पुरुष अपनी भावना तक व्यक्त नहीं कर सकता.

जब एक पुरुष पिता बन जाता है उसी क्षण से उनके जीवन का नया अध्याय आरंभ हो जाता है. एक नए कर्तव्य का न केवल आभास होता है बल्कि उन्हें शांतिपूर्वक निभाने की इच्छा शक्ति भी जागृत हो जाती है. वह अपने पुत्र के जीवन को सींचने में लग जाता है. अपने बालक के मुख पर प्रसन्नता लाने के लिए वह सारे संभव प्रयास करता है. एक पिता जो सदैव स्वाभिमानी होता है. उनका मस्तक किसी के समक्ष नहीं झुकता वह भी स्वयं उस नन्हे से बालक के लिए घोड़ा बन जाता है. और उसे अपनी पीठ पर बिठाकर सवारी कर आता आता आता सवारी कर आता आता है. यह दृश्य अवश्य ही बड़ा ही मनमोहक होता है. जहां एक पिता अपने पुत्र के प्रति गहरा संबंध बनाने में जुट जाता है.

एक पिता कभी भी अपनी संतान में अंतर नहीं करता में अंतर नहीं करता. चाहे वह पुत्र हो या पुत्री उनके मन में प्रेम, भाव, साधना दोनों के लिए ही समान होती है. जी मैं जानती हूं अब आप विचार कर रहे होंगे कि कर रहे होंगे कि पुत्री होने पर गर्भपात भी तो कराया जाता है. पर यह सारी बातें प्रत्येक मनुष्य और उनके विचारों पर निर्भर करती है. आज के समय में यह सारी बातें बहुत ही कम सुनाई देती है. क्योंकि हर व्यक्ति जानता है कि जो सेवा और निस्वार्थ प्यार एक पुत्री देती है वह प्रसन्नता एक पुत्र कभी भी नहीं दे सकता. जो व्यक्ति दोनों में अंतर नहीं करता उससे बड़ा ज्ञानी मनुष्य इस पूरे संसार में कोई है ही नहीं.

एक पिता अपनी संतान के उज्जवल भविष्य के लिए उसे शिक्षित करता है. उच्च संस्कार देता है. संस्कार देना अति आवश्यक है है. जिस तरह से एक बीज में जड़, शाखा, तना, फल-फूल, फूल, पत्ता दिखाई नहीं देता परंतु बीज में उसका अस्तित्व विज्ञामान है. भले ही वह कितना ही सूक्ष्म क्यों ना हो. एक बालक भी उस बीज के भांति ही होता है. उसमें भी प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य के भाव मौजूद होते हैं. जिस प्रकार से बीज को नियमित पानी देकर वृक्ष में परिवर्तित किया जाता है. बिल्कुल उसी तरह मनुष्य को संस्कार की आवश्यकता होती है. उससे वह अपनी सहज प्रवृत्तियों का पूर्ण विकास करके अपना और समाज दोनों का कल्याण करता है. संस्कार सिर्फ इसी जीवन में ही मनुष्य को पवित्र नहीं करता उसके पारलौकिक जीवन को भी पवित्र बनाते हैं. यह भी सत्य है कि प्रत्येक बीज वृक्ष नहीं बनता क्योंकि बीज से वृक्ष होने की यात्रा में कुछ अन्य उपकारक तत्व भी आवश्यक के होते हैं. उसी तरह हर मनुष्य भी महान नहीं बनता उसके लिए श्रेष्ठ कर्म, नाम, जप और यज्ञ करना अति आवश्यक है. इसलिए हर माता-पिता का यही प्रयास होता है कि उनकी संतान को उच्च संस्कार मिले. एक पिता दिन-रात परिश्रम करता है. वह स्वयं भूखा रह जाएगा परंतु अपनी संतान के कुछ मांगने से पहले ही उसके सामने उपस्थित कर देता है. उसकी संतान ही अब उसके जीवन का प्रमुख हिस्सा बन जाती है. उसे यदि कोई रोग हो जाए तो वह सारी औपचारिकता करवाता है. भगवान के समक्ष गिड़गिड़ाता है. पूजा करवाता है.मन्नते मांगता है. कोई भी मनुष्य अपनी संतान को पीड़ा में नहीं देख पाता. यह पूरी सृष्टि भगवान नहीं रची है. हमारे माता-पिता उन्हीं के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है. बस उन्हें परखने की देर है.

एक पिता स्वयं अनपढ़ हो तो भी वह अपनी संतान को शिक्षित कर आता है. क्योंकि वह शिक्षा का महत्व समझता है. और वह नहीं चाहता कि उसके बच्चों को कभी भी जीवन में समझौता करना पड़े. जैसे-जैसे एक बालक बड़ा होता जाता है. उसके पिता की जिम्मेदारियां और भी बढ़ जाती है. वह नन्हा सा बालक कभी हंसता है, खेलता है, जिद करता है और यदि कभी रुष्ट हो जाए तो कटु वचन भी कहता है. एक पिता ही है जो उन कटु शब्दों को उस अपमान को भी ग्रहण कर देते हैं. और अपने मन को आश्वासन देते हैं. कि यह बालक है इसमें अभी भी अच्छे बुरे की समझ नहीं है. यदि मनुष्य कोई गलती कर दें तो भगवान भी उन्हें उचित दंड देते हैं. या उसकी गलती का आभास कराते हैं. पर यहां एक पिता की मन की पवित्रता को समझो. वह अपने पुत्र के कटु वचन भी आनंद से ग्रहण कर देता है. किसी भी प्रकार का दंड नहीं देता. चाहे उन्हें कितना ही बुरा क्यों ना लगे. उनके भीतर कोई भी मेल नहीं होता. केवल पवित्र प्रेम झलकता है. और मन इतना बड़ा हो तो भगवान से भी ऊंचा स्थान उस पिता को देना अनुचित नहीं है.

प्रकृति हमें बहुत कुछ सिखाती है. सूर्य भी स्वयं जलकर अपनी किरणों से प्रकाश फैलाता है. और शाम होते ही वह अस्त हो जाता है. यह प्रकृति की एक नियमित घटना है. उसी प्रकार एक पिता भी अपनी संतान के जीवन में सदैव उजाला फैलाने का ही प्रयास करता है. सूर्य फिर भी विश्राम लेता है. वह अस्त हो जाता है. परंतु एक पिता अपनी संतान के लिए हर पल कर्म करता है. वह अपनी आखिरी सांस तक अस्त नहीं होता. उसके संतान के समक्ष आती हर कठिनाइयों के सामने वह चट्टान बन कर खड़ा रहता है. विचार कीजिए वह पिता कितना तेजस्वी है. जो अपने बच्चों के जीवन में सदैव प्रकाश ही फैलाता है. कभी भी अंधियारा नहीं आने देता. उनके चरणों को नमन करना ही एक संतान का सर्वप्रथम धर्म है.

रमिला राजपुरोहित

रमीला कन्हैयालाल राजपुरोहित बी.ए. छात्रा उम्र-22 गोवा