मुक्तक/दोहा

श्रीमद्भगवद्गीता के मुक्तक

(1)
है दुनिया में जो व्यापक ज्ञान और अध्यात्म की वाहक
सदा जो पथ दिखाती है,बनाती नर को जो लायक
उसे कहतें हैं सारे दिव्यता का इक महासागर,
कहाती है जो गीता,कृष्ण थे,जिसके अमर गायक।
(2)
मुझे गीता ने सिखलाया,जिऊँ मैं कैसे यह जीवन
सुवासित कैसे कर पाऊँ,मैं अपनी देह और यह मन
मैं चलकर कर्म के पथ पर,करूँ हर पल का नित वंदन,
महकता मेरा गीता-ज्ञान से,जीवन औ’ घर-आँगन ।
(3)
कर्म को मानकर पूजा,ही मन को तुम प्रबल रखना
बनो तुम निष्कपट मानव,यही आदर्श फल चखना
नहीं करना कभी तुम,एक पल परिणाम की चिंता,
कि बस कर्त्तव्य-पथ पर,आगे ही बढ़ते सदा दिखना।
(4)
अमर है आत्मा सबकी,यही गीता ने सिखलाया
नहीं जिसका मरण होता,यही इक सत्य दिखलाया
अमर हैं कृष्ण और अमरत्वमय है ज्ञान की वाणी,
सकल ब्रम्हांड में  श्रीकृष्ण ने आलोक फैलाया।
(5)
मोह अर्जुन का मारा था,सुनाकर ज्ञानमय गीता
जो समझा ज्ञान यह गहरा,वही अज्ञान को जीता
समझ लें धर्म को,और नीति-दर्शन,सत्य की वाणी,
बना लो मन को यूँ पावन,जो नित गीता-अमिय पीता।

— प्रो(डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल-khare.sharadnarayan@gmail.com