लघुकथा

अति सर्वत्र वर्ज्यते !

“मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती अमर !”
“क्यों ? ..क्यों नहीं कर सकती शादी मुझसे रजनी ? आखिर एक दिन में ऐसा क्या बदल गया जो तुमने इतना बड़ा फैसला कर लिया?”
” यह एक दिन में लिया हुआ फैसला नहीं है अमर ! काफी सोच समझकर मैंने यह फैसला लिया है।”
“आखिर ऐसी क्या बुराई नजर आ गई तुम्हें मेरे अंदर ?”
“कोई बुराई नहीं अमर !… लेकिन क्या अति बुराई का ही दूसरा नाम नहीं है?… जानते हो अमर, तुम्हारी बातें, बुजुर्गों के प्रति सम्मान व तुम्हारे विचार जानकर ही तो मैं तुम्हारे करीब आई थी क्योंकि मैं भी अपने माता पिता व बुजुर्गों का दिल से सम्मान करती हूँ।.. बहुत अच्छा लगा था जानकर कि तुम अपनी माँ का बेहद सम्मान करते हो.. लेकिन धीरे धीरे यह जानकर निराशा हुई कि तुम सिर्फ अपनी माँ का ही सम्मान करते हो।.. तुम्हारी नजर में और किसी रिश्ते के लिए कोई सम्मान नहीं। और किसी की भावनाओं की कोई कद्र नहीं और मैं नहीं चाहती कि अपनी सास की आज्ञाकारी व गुणी बहू का चोला ओढ़कर अपनी आत्मा को मार लूँ। माँ का सम्मान करना, उनकी बातें मानना, उनकी सेवा करना तो बहुत अच्छी बात है लेकिन उनके ऊपर इस कदर निर्भर रहना कि उनसे पूछे बिना तुम अपने लिए एक दिन दफ्तर से छुट्टी भी नहीं ले सकते, अपने लिए खुद से कुछ सोच भी नहीं सकते, इसे कौन सही कहेगा ? …और इसीलिए मैँ तुमसे शादी नहीं करना चाहती अमर..! मैं नहीं चाहती कि मेरा पति सास के पल्लू से इस कदर बँधा रहे कि अपनी गृहस्थी शुरू करने के लिए भी उनकी इजाज़त का मोहताज हो !”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।