कहानी

कहानी – बुआ

महकमे के किसी अनिवार्य काम के लिए मुझे सीमावर्ती एक गांव में जाना था। यह गांव मेरे शहर से लगभग पचास किलोमीटर दूर था। मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और अपनी मंजिल की ओर चल दिया। लगभग एक घण्टे के बाद मैं उस गांव से कोई पांच किलोमीटर इध्र ही था कि सामने बुआ का गांव नज़र में आया। स्कूटर जैसे स्वयं ही रूक गया हो मेरी आत्मा की स्वीकृति के लिए। मैंने स्कूटर खड़ा कर दिया तथा मेरे बचपन के वे दिन चींटियों की यात्रा की भांति मस्तिष्क में दौड़ने लगे। आज 30 वर्ष के बाद बुआ के गांव से एक किलोमीटर दूर खड़ा था। जैसे मैं मन ही मन कहने जा रहा हूँ बुआ मैं आ गया हूँ तुझे मिलने। बुआ, देख, तेरा बिंद वीर आया है। तुझे कोई नहीं मिलता, मैं मिलूंगा तेरा वीर बिंद। जिस को तूने बचपन में लोरियां देकर पाला तथा लाड-प्यार किया। याद हैं न वे दिन बुआ। मेरे मस्तिष्क में महफूज हैं पवित्रा प्यार की तरह वे दिन। क्या कुछ स्वयं ही बोलता चला गया तथा फिर फिर चुप हो गया। चारों ओर नज़र दौड़ा कर देखा कि तुझे कोई देख तो नहीं रहा। क्यों टूटते हैं रिश्ते नहीं रिश्ते नहीं टूटते दूरियां पड़ जाती हैं परन्तु दूरियां भी क्यों पड़ जाती हैं रिश्ते न तो टूटते हैं और न ही दूरियां पड़ती हैं मज़बूरियां, स्वार्थ तथा नफरत से यह रिश्ते खोखले हो जाते हैं, परन्तु इन की बुनियाद नहीं मरती। बुआ का रिश्ता तो भगवान से भी महान होता है शायद। मैं तो बुआ के पवित्रा रिश्ते को भगवान की तरह ही मानता हूँ। मनुष्य अपने स्वार्थों के लिए रिश्तों को क्यों तिलांजलि दे देता है? स्वार्थ की कोई बुनियाद नहीं होती। रिश्तों की बुनियाद पक्की तथा पवित्रा होती है। एक रिश्ता जब बनता है तो उस के ऊपर मोह के सूर्य की लकीर ;रेखाद्ध फूट पड़ती है, जिस की रौशनी फिर कभी नहीं मरती। स्वार्थ, नफरत, मज़बूरी तो मौके पर फूटी मौसमी घास की तरह होता है जो समय के साथ स्वयं ही बर्बाद हो जाती है। परन्तु रिश्ते नहीं मरते। जिस्मों की जड़ों से, नोह की नाजुक शाखाओं पर रिश्तों के जो भव्य सुमन खिलते हैं उन की सुरभि कभी नहीं मिटती।
बस दूर से ही बुआ के गांव को देख रहा था और स्कूटर पर बैठा सोच रहा था। मुझे याद आ गए वे दिन मनुष्य की ज़िदगी से बचपन कभी भनफी नहीं होता। आदमी सब कुछ भूल सकता है, परन्तु बचपन की यादें कभी नहीं भूलता। मृत्यु के समय भी इन्सान को सबसे पहले अपने बचपन एवं जवानी की यादें ही आती हैं। मुझे याद है आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व जब बुआ का विवाह हुआ था। मैं बहुत छोटा था, परन्तु मुझे होश जरूर थी। बुआ मुझे साथ लेकर आया करती थी अपने ससुर गांव। बुआ मुझे लाड-प्यार करती, सारा-सारा दिन मेरे साथ खेलती रहती और घर का काम भी साथ-साथ करती रहती। बुआ एक विशाल संयुक्त परिवार में ब्याही गई थी। फूफा स्वास्थ्य विभाग में मुलाज़िम था तथा उनके शेष भाई व्यापार करते थे। खाता-पीता अच्छा घर था। खुला आंगन, कई कमरे। भैंसें, गाएं रखी हुई थी। बुआ मुझे चोरी-चोरी काढ़नी ;मिट्टðी का बर्तनद्ध का गर्म-गर्म बादामी रंग का दूध् मलाई डाल कर, कड़े के ग्लास में भर कर देती तथा कहती, फ्पी ले, मेरे वीर जल्दी-जल्दी।य् तो मैं डीक लगा कर पी लेता। बुआ खुश हो जाती। मेरा माथा चूमती और कहती, फ्मेरा प्यारा वीर बिंद।य् मुझे उसका ऐसा कहना बहुत अच्छा लगता। मोह का संपूर्ण अहसास।
30 वर्ष पहले का गांव अब बदला-बदला सा नज़र आता था। पक्की सड़कें, नहर जो बुआ के गांव के समीप से गुज़रती थी, अब पक्की कर दी गई थी। इस नहर पर अब छोटा सा पुल भी बन चुका था। सारे घर पक्के नज़र आ रहे थे, परन्तु दूर से बुआ के घर के सामने वाला बरगद वैसे का वैसा ही नज़र आ रहा था। मुझे याद हैफाफा शहर से डयूटी देकर लगभग रात देर से ही आते थे, परन्तु वह जब भी आते मेरे लिए कोई न कोई चीज़ खाने के लिए ज़रूर लाते थे। इसी के लालच में मैं बुआ के साथ देर रात तक फूफा का रास्ता देखता रहता। गांव में बिजली नहीं थी। लैम्पें होती थी। कच्ची नहर थी। पानी कम होता तो लोग नहर पार करके आ जाते। जब फूफा ने रात को नहर पार करके आना होता तो वह दूर से ही आवाज़ दे देते। नहर गांव के बिल्कुल नज़दीक थी। बुआ और मैं लैम्प लेकर नहर से फूफा को साथ लेकर आते। वह मुझे उठा लेते, पारियां करते और मेरी चीज़ मुझे दे देते। मैं खुशी में वहां ही उस चीज़ को देखने की कोशिश करता। घर आ कर मैं वह चीज़ पा कर प्रसन्न होता और स्वाद लगा कर खाता। रात को सोने के समय बुआ सिर पलोसती तथा लोरियों से मुझे सुला देती। इस तरह मैं कई-कई दिन बुआ के पास रहता। जब मुझे कोई घर से लेने आता तो मैं रोता हुआ बुआ से चिपक जाता। बस रो-रो कर बेहाल हो जाता तथा बुआ की आंखों में भी आंसू आ जाते और वह कहती, अच्छा बिंद, अब तू चल मैं जल्दी-जल्दी फिर तुझे लेने आऊंगी।य् और ऐसे कहती हुई वह मुझे बार-बार लाड़-प्यार करती।
मैं सोच रहा था कि रिश्तों में स्वार्थ, मज़बूरियों की दीवार खड़ी हो जाती है, परन्तु मनुष्य को छोटी-छोटी बातों के पीछे रिश्तों को तिलांजलि नहीं देनी चाहिए। समाज में रहते हुए उन्नीस-इक्कीस होती रहती है। दुःख-मुसीबतें आती रहती हैं, परन्तु रिश्तों को, मोह को बिल्कुल ही त्यागना नहीं चाहिए। मानवता स्वर्थ से भी परे है। स्वार्थ समय के साथ फूटता है, और समय के साथ ही झड़ जाता है, अगर स्वार्थ तथा आवश्यकताओं को रिश्तों के साथ सुचारू ढ़ंग से निबाते जाए, जिस से रिश्तों के माध्ुर्य में खटास न पड़े तो ज़िदगी में मोह-प्यार के सुगंध्ति फूल खिले रहते हैं, जिन की सुग्ध् िकेवल अपने मन को ही नहीं, गैरों को भी सुरभित करके जीने का एक संदेश देती है।
बुआ को मेरे पिता जी मिलते नहीं थे। जिस बहन को चाव भरी उमंगों से ब्याहा हो उसे बिल्कुल छोड़ ही दिया जाए यह कैसी विडम्बना है? घर में बातों से पता चलता रहता था। पिता जी तथा चाचा जी में कुछ काटुन्यिक वैमनस्य पैदा हो गया था। उच्च न्यायालय तक केस लड़ते रहे। यह दोनों भाई अच्छी खासी सरकारी नौकरियों पर थे। परन्तु कुछ स्वार्थी लोगों एवं ईश्र्यालु रिश्तेदारों ने दोनों भाईयों में ज़मीन जायदाद की तथा घरेलू बातों की लड़ाई लगवा दी जो बढ़ कर बहुत दूर तक गई। इसी दरम्यान बुआ दोनों भाईयो की मदद भी करती रहती। परन्तु पिता जी ने बुआ को कह दिया था, ढ़िए या तो छोटे को मिला कर या मुझे।य् बुआ अब द्वंद में फंस गई थी और आखि़र उसको अपने पति की माननी पड़ी। और बेचारी क्या कर सकती थी? वैसे भी चाचे का अपनी बहनों पर दब-दबा और पूरा प्रभाव था। बुआ मज़बूर हो गई और वह दिन-त्यौहार एवं दुःख-सुख में चाचे के साथ ही मेल-मिलाप रखती। पिता जी ने बुआ को बिल्कुल ही मिलना छोड़ दिया था। हम छोटे थे। हमारा भी आना-जाना बंद हो गया। दूसरे पढ़ाई में तल्लीन हो गए। नौकरी लग गए, विवाहे गए, बच्चे हो गए, आज बुआ को देखे 30 वर्ष हो गए थे। मैंने आज मन बना लिया था कि बुआ को मिल के ही आना है। बुआ कैसी होगी? वह मुझे पहचानेगी या नहीं? उनके बच्चे क्या करते हैं इत्यादि कई प्रश्न मस्तिष्क में कौंध् रहे थे।
आखि़र मैंने स्कूटर स्टार्ट किया तथा सामने नज़र आ रहे बुआ के गांव की ओर मोड़ लिया। नहर का पुल पार करके मैंने उसी पुराने बरगद के नीचे कुंए के पास स्कूटर खड़ा कर दिया। इस के सामने ही बुआ का घर था जो अब पक्का और बढ़िया नज़र आ रहा था। मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि अब वह ससुराल वालों से अलग रहती है। अंदाज़े से आगे बढ़ा तो देखा कि एक प्रौढ़ आयु की महिला आंगन में चावल छांट रही है। मैं पहचान गया कि बुआ ही है क्योंकि उसके चेहरे का काला तिल वैसे का वैसा ही नज़र आ रहा था। बेशक अब बुआ का शरीर थुलथुल सा हो गया था। चेहरे पर झुरियों ने रेखाएं खींच ली थी। समय ने करवट लेकर आयु को हालात से जर्बें-तकसीमें दे दी थीं।
मैं बुआ के बिल्कुल समीप जा कर चुपचाप खड़ा हो गया। वह देख कर हैरान सी हो गई तथा कहने लगी, देखता क्या है, वह है दरवाज़े के पीछे मीटर, मुँह में चने डाल रखे हैं क्या? कैसे सीध भागता आ रहा है, दरवाज़ा नहीं खटखटाया जाता। वह है मीटर देख ले जा कर जाह-जाह मेरे मुँह की तरफ क्या ताक रहा है बिटर-बिटर।य् मेरी आंखों में आंसू आ गए, परन्तु मैंने आंखों से टपकने नहीं दिए। बहुत मुश्किल से आंसू रोके बुआ को समीप से देख कर। उसने फिर कहा, पागल है क्या? सुनता नहीं? वह है मीटर।य् बुआ ने मुझे मीटर रीडर समझा था।
मैंने बुआ को नज़रें टिका कर देखा और उसका कंध पकड़ते हुए कहा, मैं बिंद हूँ।य् मेरा नाम सुनते ही बुआ की चीख निकल गई। उसने मोह के साथ मुझे गले लगा लिया। उसका छज्ज कहीं, चावल कहीं तथा चुन्नी ;आंचलद्ध कहीं जा पड़ा। रमली-कमली बुआ ने सारे गांव में शोर मचा दिया, लोको मेरे मायके आए जेलोको मेरे मायके आए जेमेरा वीर बिंद आया लोको मेरे मायके आए।य् बुआ की ऊंची आवाज़ सुन कर उसकी देवरानियां-जेठानियां, जिस हाल में भी थी दौड़ी आई। मेरे मायके आए लोको।य् बुआ खुशी में जैसे पागल हो गई हो। मेरी आंखों में आंसूओं की झड़ी लग गई और बुआ के आंसू भी बह गए। मुझे बुआ ने बैठक ;कमरेद्ध में बिठा दिया। उसके घर के सब लोग इक्ट्ठे हो गए। गांव की अन्य महिलाएं भी आ गई। बुआ सबको कह रही थी कि मेरा वीर बिंद आया एलोको मेरे मायके आए। बुआ ने तेल की कड़ाही रख दी, पकौड़ों के लिए। एक औरत को बाज़ार भेजा दिया। बुआ का चाव जैसे सात आसमानों को चीर गया हो तथा उसने प्रमाणित कर दिया कि रिश्तों की महक कभी नहीं मरती।
खाने वाले अनेक पर्थ बुआ ने मेरे आगे रख दिए। वह मेरे पास बैठ गई। सब का हाल-चाल पूछा। मेरे बारे पूछा, तू क्या करता है? बच्चे कितने हैं? क्या करते हैं? भाभी जी का क्या हाल है? कई सवाल दाग दिए उसने। आखि़र उसने अपनी जिज्ञासा शांत करके ही सांस ली। मैंने भी बुआ से कई सवाल पूछे। बच्चों के प्रति, परिवार के प्रति, दुःख-सुख संबंध्ी। बुआ घर में अकेली थी। उसके दोनों लड़के पढ़-लिख कर नौकरी करते थे। दोनों लड़कियां विवाहित थी। फूफा नौकरी पर गए हुए थे।
मैंने बुआ को कहा, फ्बुआ, हमारी कभी याद नहीं आई।य् वह डूस्क-डुस्क कर रोने लगी। डुस्कती हुई, आंचल से आंसू पोंछती हुई ने कहा, फ्बिंद, मायके की किस बेटी को याद नहीं आती। याद कर करके रो लेती थी। रिश्तेदारों से कुशल-क्षेम पूछ लेती थी। बेटियां जब बेगाने घर चली जाती हैं न, बिंद तो वहां फिर उनकी मर्जी नहीं चलती। मैं मजबूर थी, क्या कर सकती थी? याद तो सब की बहुत आती थी। भाभी ने तो मां से ज्यादा प्यार दिया है, कैसे भूल सकती है कोई बेटी अपने मायके को बिंद।य्
मुझे जल्दी भी थी। मैंने बुआ को कहा कि मैं अब फिर आऊँगा। लेट हो रहा हूँ। सीमावर्ती एक गांव में ज़रूरी काम से महकमे की ओर से आया हूँ। उसने कंध्े पर हाथ रखते हुए कहा, बिंद, तू तो अब मिला कर। पत्नी को लेकर आना, बच्चों को लाना। भरजाई ;भाभीद्ध जी तथा भाई साहिब को मेरी सत् श्री अकाल कहना और वह फूट-फूट कर रोने लगी और मेरे भी आंसू निकल आए। मैंने बुआ के पांव छुए। उसको मोह भरी गलवकड़ी में लिया। उसने मेरा माथा चूम कर कई आसीसें दीं।
मैंने स्कूटर स्टार्ट कर नहर पार करके जब मुड़ कर पीछे देखा तो बुआ दरवाज़े में, मेरी ओर नज़रें गाढ़े खड़ी थी। वह अभी भी दरवाज़े में खड़ी थी। रिश्तों की मज़बूत दहलीज़ पर, जिन की सुरमि कभी नहीं मरती कभी नहीं मरती।

— बलविन्दर ‘बालम’

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409