कविता

महक

अचानक से यह इत्र की आ गई महक
दस्तक है यह किसी की लगता है कोई है पास
15 साल पुरानी यादें फिर से हो गई ताजा
नहीं भूला तुम्हारी वह महक
वैसे हटती नहीं हो मेरे जेहन से
पर नाम मात्र लिया कि नहीं
आ गई वही भीनी भीनी खुशबू
सच बता यहीं हो ना तुम
मैं तो भूल ही गया कहां जाओगी
तुम मुझ से निकलकर
भूलने की कोशिश में यादें
हो जाती और ताजा तरीन
अब तो मेरे अलमीरा से मेरे कपड़ों में
छा गयी अब वो ही महक
ढूंढ रहा हूं वही खुशबू
जो तुम लगाकर आती थी
क्या नाम लेकर मैं ढूंढूं उस खुशबू की
लगता है जैसे धूप से तृषित धरा पर गिरी
पहली बारिश की बूंदे जैसी सोंधी
या आम्र मंजरियों से टकराकर
आती समीर का झोंका
या कोमल स्पर्श की खुशबू
मेरे हर एहसासों में शामिल तेरी महक
याद दिलाती मुझे वह भोर की बेला
चिड़ियों का घोसलों से निकलना कलरव करना
और सहसा दुपट्टा लहराते हुए जाती तुम
और फिर नाम लिया उफ्फ
आ गयी महक, मेरी महक,
जो लिप्त है मुझ में अभी तक।

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - meerajsr2309@gmail.com