कविता

अकेले है हम

ना कोई शोर, ना कोई आहट है
मायूस सा शहर अकेले है हम
ना किसी का मिलना, ना कोई अब पास है
गमजदा हवा है सहमे से है हम !!
ना कभी चाँद छिपा था कभी आमावस मे
है जिस तरह कैद अपने घरों मे हम
जीने को देखो कितने आगे आ गए है
की अब सांस लेने से भी डरते है हम !!
होती थी चर्चे घरों मे नेगेटिव इंसानों से दूर रहो
के अब तो पॉजिटिव इंसानों से दूर है हम
सब के सब यूँ सहमे है आज
पता नहीं कहाँ से कहाँ आ गए हम !!
सुनी है आज मस्जिद और मंदिर वीरान है
ना पादरी, ना पंडित ना साधु इमाम है
पूछो अब इंसानों से कहाँ खो गए भगवान है
क्यों ना उसके वजूद को टटोलते है हम !!
अब ले लो सिख, वृक्ष है ये धरती
ना काटो इसे, अब बार बार कहती
उम्र मे बड़े है ये, अभी तो बच्चे है हम
पतझड़ आ गया है, शायद पत्ते है हम !!
अब तो सबकी वेदना चीखने लगी है
ना जाने कौन से संकट मे फसे है हम
बहुत डरावनी सी भरी है आज जिंदगी हमारी
हर जगह खाली पड़ा, बस गुमसुदा घर मे अकेले है हम !!
— राज कुमारी

राज कुमारी

गोड्डा, झारखण्ड