लघुकथा

चांद से वार्तालाप

कोरोना के बढ़ते प्रकोप से ज़िन्दगी की रफ्तार थम सी गई और लोग अपने घरों की चारदीवारी में कैद हो गए। मोहल्ले के अधिकांश लोग और मेरे घर के निचले हिस्से में रहने वाला परिवार भी इसकी चपेट में आ चुका था सो मेरा डरना स्वाभाविक था।बाहर तो दूर की बात थी मैंने तो नीचे जाना भी छोड़ दिया।घर के दो कमरे में खुद को सीमित कर लिया। टी वी में दिन रात मौत,चिकित्सकीय सुविधाओं का अभाव,लाशों की अंतिम संस्कार के लिए लगी लंबी कतारें,ऑक्सीजन की मारामारी जैसी खबरें सुन- सुनकर जी घबराने लगा तो सोचा चलो थोड़ा छत पर ही टहल लूं।आसमान में शुक्ल पक्षी चांद अपनी मनोरम छटा बिखेर रहा था। मैं सम्मोहित हो,उसे एकटक देखने लगी।यकायक मुझे लगा कि उसने मुझसे मुस्कुराकर पूछा-“इतनी जल्दी घबरा गईं अकेलेपन से?मुझे देखो मैं तो सदियों से अकेले भटक रहा हूं।चलो कुछ बातें करते हैं।दोनो का कुछ वक्त गुजर जाएगा।” मैंने अपनी आंखें मचली,कहीं यह मेरा वहम तो नहीं।लेकिन यह बिल्कुल सच था।वह सचमुच मुझसे बातें कर रहा था।

चांद: तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया।

मैं : अरे! तुम अकेले कहां हो? तुम्हारे इर्द- गिर्दअसंख्य तारिकाएं भी तो हैं जो तुम्हारे साथ विचरती रहती हैं। मुझे देखो मैं कितनी अकेली हूं।चाहकर भी अपने दोस्तों से नहीं मिल सकती। केवल जरूरी चीजें ही लेने बाहर निकल सकते हैं।पता नहीं कहां से यह मनहूस वायरस आया है,जाने का नाम ही नहीं लेता।जीना दूभर कर दिया है इसने।(एक ही सांस में मैंने अपनी सारी खीझ निकाल दी)

चांद (मुस्कुराते हुए): अरे,अरे इतनी नाराजगी ठीक नहीं है।ठंडे दिमाग से सोचो कि आख़िर इसके पीछे का कारण क्या है? एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में तुम लोग प्रकृति से ही खिलवाड़ कर बैठे और तो और ईश्वर बनना चाहा।तो अब भोगो उसका परिणाम।

मैं : (क्रोधित होते हुए) लेकिन केवल कुछ लोगों की गलती की सजा सबको क्यों मिल रही है?

चांद: वह इसलिए क्योंकि उन कुछ लोगों के ऐसे कार्यों का मौन समर्थन तो आखिर सभी करते हैं। विकास के नाम पर जब जंगल के जंगल उजाड़े जाते हैं,अबोध जीवों के आवास नष्ट करके उनका शिकार किया जाता है, नदियों का बहाव रोककर बांध बनाए जाते हैं,पर्वतों को काटा जाता है,मिट्टी के साथ खिलवाड़ किया जाता है,तब तो सब बहुत खुश होते हो। कभी सोचा भी है घर-आंगन में फुदकने वाली गौरैया और अन्य बहुत से पक्षी आखिर कहां गायब हो गए?तुम जैसे संवेदनहीन लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए,तभी शायद कुछ हो सके।(विषाद में भरकर)
मैं अवाक रह गई और कुछ बोल न सकी।जवाब देती भी तो क्या?बहस करती भी तो कैसे?चांद ने को कुछ भी कहा वह अक्षरश: सच ही तो था।हम आधुनिकता और प्रथम आने की चाह में कब मानव से दानव बन गए पता ही नहीं चला।चुपचाप भारी कदमों से मैं अपने कमरे में वापस लौट आई।चांद अब भी मुस्कुरा रहा था।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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