कवितापद्य साहित्य

जगजननी जानकी जन्मकथा

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कथा अनघ अनिवर्चनीय
मैं जड़मति निकाज।
हे वरदायिनी शारदा!!
आप ही रखिए लाज॥
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प्रथम भाग
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विधि विवश थी गगन विकल
धरणी शोक निमग्न।
रावण के अनाचार पाशवश
शुचि सत्य सब भग्न॥

बल प्रचंड निर्बाध निरंकुश
जैसे काल कराल।
‘चंद्रहास’ के ग्रास थे साधक
योगी, मुनि के भाल॥

दमित शमित मानवता कातर
पारित दैत्य विधान।
यज्ञालय, गुरुकुल से करते
विप्र रक्त कराधान॥

स्वर्ण कुंभ में संचित कर यह
विप्र रक्त विष लेस।
मत्तमंध लंकेश्वर रावण
पहुंचा लंका देश॥

किया प्रदर्शित विजयचिन्ह सम
निर्दोषों का रक्त।
हुए अपशकुन बड़े भयङ्कर
हुआ शाप अभिव्यक्त॥

हुआ भयाकुल दैत्य असुरकुल
नागज निकर निशाचर।
तब रावण ने करी मंत्रणा
सभासदों से जाकर॥

ज्ञात हुआ वह स्वर्णकुम्भ ही
सकल विपद का मूल।
जहाँ रहेगा यह पातक घट
होगी विधि प्रतिकूल॥

तत्क्षण किया दशानन ने तब
मन में कुटिल विचार।
शस्य श्यामला मिथिलापुरी में
हो घट का निस्तार॥

दिया निशाचर दल को क्षण में
रावण ने आदेश।
स्वर्णकलश को भुमिगत कर दो
जाकर मिथिला देश॥

रावण के आदेश का पालन
किया निशाचर दल ने।
अभिशप्त वह कुंभ पहुंच गया
मिथिला माटी तल में॥

विप्र रक्त का रुद्र रूप तब
होने लगा परिलक्ष।
सुजला सुफला मिथिलांगन में
पड़ा अपुर्व दुर्भिक्ष॥

क्रमश…

जयति जयति जय जनकन्दिनी
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समर नाथ मिश्र
रायपुर