कहानी

ख्वाहिश

  जबसे कलावती बस्ती की ही अपनी एक सहेली की अंत्येष्टि से वापस आई थी बेहद गमगीन व भावुक नजर आ रही थी। लग रहा था जैसे वह गंभीरता से कुछ सोच रही हो। चेहरे के भाव ऐसे थे मानो वह कुछ कहना चाह रही हो और शब्द उसकी जुबान से न निकल पा रहे हों।
उसकी अवस्था से चिंतित उसके पति धरमू की नजरें लगातार उसका निरीक्षण कर रही थीं। आखिर उससे रहा नहीं गया तो वह उठकर कलावती के पास गया और स्वर में मिठास घोलते हूए उससे पूछा, ” देख रहा हूँ जब से तुम बसमतिया की अंत्येष्टि से आई हो लगातार कुछ सोचे जा रही हो और कुछ कहना चाह रही हो। फिर चुप काहें हो ? कह दो न .! काहें मन पर बोझ लादे घूम रही हो ?”
कहीं खोई हुई सी कलावती की गंभीर आवाज निकली, ” क्या कहें सोहन के बाबू ? मन पर बोझ लादे घूमने की तो हम गरीबन को बचपन से ही आदत लगी हुई है, क्या क्या कहें और कैसे मन का बोझ हटाएं ? मन की बात मन में ही रखकर जीना तो हम सबकी किस्मत में लिखा है। हमें नहीं मालूम का कि आपके दिल पर केतना बोझ है ?”
प्यार से उसकी ठोड़ी पकड़कर उसका चेहरा अपनी तरफ घूमाते हुए धरमू बोला, “अरे सोहन की अम्मा ! तुम तो रात दिन हमरी फिकिर में ही लगी रहती हो ? अब छोड़ो हमरे मन के बोझ को और अपने मन की कहो !”
अपनी पलकें खोलकर प्यार से धरमू की तरफ देखते हुए वह भावुक स्वर में बोली, ” अब का बताएं सोहन के बाबू …बसमतिया की अंत्येष्टि का वह सीन हमरी नजर के सामने से हट ही नहीं रहा है। लोग बाग घेरे हैं उसकी मट्टी को और उसका पति रोते रोते कई बार बेहोश हो गया। कुछ देर बाद किसी नई नवेली दुल्हन जैसे बसमतिया को सजाया गया और जब उसके पति ने उसे सिंदूर पहनाया तो लोग फफक पड़े और मैं तबसे यही सोच रही हूँ कितनी किस्मतवाली रही बसमतिया जिसको मरने के बाद भी अपने पति के काँधे का सहारा मिला ! बस हम भगवान से इहै मना रहे हैं तबसे कि जब भी हमें मौत देना हमें आपके काँधे का सहारा …..!” उसकी बात अधूरी रह गई थी। अचानक धरमू ने अपना हाथ उसके मुँह पर रख दिया था।
” अरे इ का अनापशनाप बोले जा रही हो सोहन की अम्मा ? मरें हमारे दुश्मन ! न तुम कहीं जा रही हो और न हम कहीं जा रहे तुम्हें छोड़कर ! अभी तो सोहन बिटवा बिसै बरीस का हुआ है। काम भर का पढ़ लिया है। कुछ ढंग का काम काज करने लगे तो उसकी गृहस्थी बसाकर हम दोनों भगवान से प्रार्थना करेंगे कि अब बस हमरी जिम्मेदारी पूरी हुई। अब हम दूनो जने को अपने इहाँ बुला ले !” कहते हुए धरमू भी भावुक हो गया था।
” दुःखी न हो सोहन के बाबू ! उ कहते हैं न कि बेटी डोली में आती है और अर्थी में जाती है…हम जानत हैं कि डोली तो हम गरीबन के नसीब में कभी नहीं रही लेकिन मन में बड़ी लालसा जाग गई है बसमतिया को इस तरह सज संवरकर जाते हुए देखकर कि डोली नसीब में नाहीं रही तो कउनो बात नाहीं …भगवान बसमतिया की तरह से अर्थी अउर आपके काँधे का सहारा तो हमरे नसीब में लिख दे !” विचारों में खोई हुई कलावती होठों में ही बुदबुदाई थी।
लगभग पैंतालीस वर्षीय धरमू एक दिहाड़ी मजदूर था और शहर के बाहर बसी झुग्गियों वाली बस्ती में एक झुग्गी बनाकर रहता था। कलावती बगल में बसी नई कालोनी में कुछ घरों के काम करके गृहस्थी की गाड़ी खींचने में धरमू की मदद करती थी। सीमित आमदनी के बावजूद दोनों अपनी स्थिति से खुश थे और अपने इकलौते पुत्र को  पढालिखाकर कुछ काबिल बनाने का जागती आँखों से देखा हुआ अपना सपना सच होने का इंतजार कर रहे थे।
लेकिन विधि के विधान को भला कौन समझ सका है ?
अचानक एक महामारी ने पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में ले लिया। पूरी मानवता कराह उठी। सरकारों के अथक प्रयासों के बावजूद क्या आम क्या खास सभी नागरिक कीड़े मकोड़े की तरह काल के गाल में समाते रहे और छोड़ जाते रहे अपने पीछे बिलखते, रोते परिजनों को।
ऐसी विपदा के समय भी कुछ नराधमों ने ऑक्सीजन व उपलब्ध दवाइयों की कालाबाजारी कर अपने लिए आपदा में अवसर का सृजन कर खूब चाँदी काटी और मानवता को कलंकित किया।
 इस महामारी पर अंकुश लगाने के लिए सरकारों ने लॉक डाउन का सहारा लिया। सारे काम धंधे ठप्प हो गए और बीमारी के खौफ से लोग घरों में रहने को मजबूर हो गए।
देश के करोड़ों निम्न वर्गीय लोगों की ही तरह धरमू भी बीमारी का खौफ और बेरोजगारी की दोहरी मार झेल रहा था। एहतियातन कलावती को भी काम पर आने से मना कर दिया गया था। दोनों बेटे सोहन संग अपनी झुग्गी में पड़े रहते और मन ही मन इस संकट से उबारने की ईश्वर से प्रार्थना किया करते।
लेकिन कहते हैं न होनी तो होकर ही रहती है। लाख सावधानी रखने के बावजूद कलावती इस महामारी की गिरफ्त में आ ही गई।
धरमू और बेटे सोहन के साथ कलावती शहर के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पहुँची। मरीजों के साथ उनके रिश्तेदारों की भी अच्छी खासी भीड़ अस्पताल के सामने वाली सड़क के फूटपाथ पर डेरा जमाए हुए थी।  रुदन और क्रंदन से माहौल डरावना और मार्मिक लग रहा था।
बड़ी मान मनौव्वल के बाद एक अस्पताल कर्मी ने कलावती की बिगड़ती हालत देखकर धरमू से उसे अस्पताल के अंदर लाने के लिए कहा जहाँ उसका कोरोना का परीक्षण किया गया और उसे वापस फूटपाथ पर भेज दिया।
इधर कलावती की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। अब उसे साँसें लेने में भी कठिनाई आ रही थी। उसे गोद में उठाकर धरमू सीधे अस्पताल के बाहरी कक्ष में ले आया जहाँ सारे अस्पताल कर्मी इधर उधर भागते नजर आ रहे थे। धरमू के काफी गिड़गिड़ाने के बाद एक डॉक्टर ने कलावती की जाँच की। धड़कनों की गति रक्त दाब व शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा चेक किया। ऑक्सीजन की भारी कमी देख उसने अस्पताल के बरामदे में कलावती के लिए जगह बना दिया और कुछ दवाइयाँ लिखने के साथ ही उसके लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था करने के लिए कहा।
धरमू तत्काल लिखी हुई दवाइयाँ ले आया और कलावती का इलाज भी तत्काल शुरू हो गया लेकिन ऑक्सीजन के अभाव में उसकी तबियत और खराब होती गई। धरमू भटकता रहा ऑक्सीजन की तलाश में लेकिन आसमान छूते भाव सुनकर वह खामोश रह जाता। इतनी रकम तो उसके पास कुल जमा पूँजी भी नहीं थी।
कई जगहों की खाक छानने के बाद धरमू जब अस्पताल लौटा सोहन कलावती के पास बैठा उसका माथा दबा रहा था और कलावती की साँसें धौंकनी की मानिंद चल रही थीं। उसकी बगल में ही कोरोना टेस्ट की फाइल भी आकर रखी हुई थी। धरमू पर नजर जाते ही एक अजीब सी शांति कलावती के चेहरे पर छा गई और अपनी टूटती साँसों के बीच अस्पष्ट स्वर में उसने कहा, ” सोहन के बाबू ….देखो ईश्वर ने मेरी सुन ली। मुझे बुलाया है लेकिन मैं तो आपके काँधे पर सवार होकर ही जाऊँगी। बोलो …पूरी होगी न मेरी आस ! और हाँ …अपना ध्यान रखना ! सोहन को आपकी बहुत…!”  आगे के शब्द उसके होठों में ही रह गए और उसकी गर्दन एक तरफ को लुढ़क गई।
सोहन दहाड़ें मारकर रो पड़ा और धरमू ..धरमू एकटक कलावती के शांत पड़ चुके चेहरे को देखे जा रहा था और उसके कानों में गूँज रहे थे उसके अंतिम शब्द ‘ बोलो..पूरी होगी न मेरी आस !’ इसके साथ ही बसमतिया की अंत्येष्टि से लौटने के बाद का पूरा दृश्य उसकी नजरों के सामने घूम गया। साथ ही उसके संग बिताए कई दृश्य उसकी नजरों के सामने चलचित्र की मानिंद घूमने लगे।
अचानक जैसे उसकी तंद्रा टूटी हो और वह भावावेश में कलावती से लिपटकर करुण क्रंदन कर उठा। अस्पताल में यह नजारा आम था सो किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया, अलबत्ता कुछ लोग जरूर दूर से खड़े करुण नजरों से धरमू व सोहन की तरफ देखे जा रहे थे और इस दुःख की घड़ी में उनके साथ खड़े होने का मौन संदेश प्रेषित कर रहे थे।
कुछ देर के बाद धरमू ने कलावती का शव घर ले जाने के लिए एम्बुलेंस वालों से बात की लेकिन कोई भी एम्बुलेंस वाला पाँच हजार रुपये से कम में चलने के लिए तैयार नहीं हुआ।  ऑक्सीजन सिलेंडर के अनापशनाप दाम सुनने के बाद आपदा में अवसर तलाशने का एक और उदाहरण उसके सामने था।  उसने जेबें टटोली। कुल जमा पाँच हजार रुपये ही उसकी जेब में बचे हुए थे। ये पैसे अगर एम्बुलेंस में खर्च हो गए तो आगे कलावती की इच्छा का क्या होगा ?
वह वापस लौट आया कलावती के पास। अस्पताल कर्मी बार बार धरमू व सोहन को कलावती से दूर रहने की सलाह दे रहे थे और उसके शव को अन्य शवों के साथ सामूहिक संस्कार के लिए ले जाने की तैयारी करने लगे। उनकी सुगबुगाहट पाकर धरमू ने घर से लाई गई कपड़ों की पोटली सोहन को पकड़ाई और झुककर कलावती के पार्थिव शरीर को लाद लिया अपने काँधे पर और इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता वह अस्पताल से बाहर सड़क पर आ गया।
काँधे पर लदे शव को ले जाते देख कोई सिस्टम को कोस रहा था तो कोई उसे सहानुभूति की नजरों से देख रहा था और इन सबसे बेखबर धरमू लगातार आगे बढ़ते हुए सोच रहा था अगर अस्पताल कर्मियों ने उसे कलावती का शव लाने से रोक दिया होता तो क्या होता उसकी ख्वाहिश का ?  उसकी अंतिम ख्वाहिश पूरी कर पाने की खुशी उसके आँसुओं के साथ लगातार धूल रही थी और वह बिना रुके, बिना थके लगातार चलता रहा अपनी झुग्गी की तरफ, अपनी कलावती की अंतिम ख्वाहिश पूरी करने के लिए !

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

2 thoughts on “ख्वाहिश

  • चंचल जैन

    बेहाल हैं आम जनता।क्या विपदा में अवसर ढूंढते लोग अमरत्व का चोला पहन आये हैं।जैसा बोया वैसा ही पाएंगे।सब कुछ यही छोड़ जाना हैं।कड़वे यथार्थ से आहत होती कथा।सादर

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीया बहन चंचल जैन जी ! सादर नमस्कार ! इस दुःखद घड़ी में भी जिस तरह कुछ लोगों ने आपदा को अवसर में बदलने का शर्मनाक कृत्य करते हुए आवश्यक सेवाओं व वस्तुओं का मनमाना दाम वसूल किया है यह इंसानियत को कलंकित करनेवाला अनुभव रहा ! प्रस्तुत कहानी भी एक सत्यघटना पर आधारित है जब एक पुरुष को अपनी पत्नी का शव कंधे पर ले जाने को मजबूर होना पड़ा था। रचना पर समय देकर सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन के लिए आपका दिल से आभार व्यक्त करता हूँ !🙏

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