लेख

सम्राट पृथ्वीराज चौहान नहीं थे दोषी

     तिहास में चर्चित क्षत्रिय वंशों में एक चौहान वंश के शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय, जिनकी उपाधि रायपिथौरा थी तथा जिनका शासनकाल सन 1178 ईसवी से 1192 ईसवी था, हिंदुओं के सर्वाधिक चर्चित शासकों में से एक हैं। सम्राट पृथ्वीराज के पिता राजा सोमेश्वर चौहान थे। अपने पिता की मृत्यु के समय वह लगभग 11 वर्ष के थे तथा नाबालिग होने के कारण अपनी माँ के साथ राजगद्दी पर आसीन हुए थे। उन्होंने वर्तमान उत्तर-पश्चिमी भारत पर शासन किया। उनका वर्तमान राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों पर भी नियंत्रण था। उनके राज्य की राजधानी अजयमेरु, जिसे आधुनिक समय में अजमेर कहा जाता है, में स्थित थी। हालाँकि मध्ययुगीन लोक किंवदंतियों ने उन्हें भारत के राजनीतिक केंद्र दिल्ली के राजा के रूप में वर्णित किया है, जो उन्हें पूर्व-इस्लामी भारतीय शक्ति के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित करते हैं।

सम्राट पृथ्वीराज चौहान को उनके पराक्रम एवं वीरता के लिए स्मरण किए जाने के साथ-साथ इस बात की भी चर्चा की जाती है, कि यदि उन्होंने अपने चिर-परिचित शत्रु शहाब-उद-दीन मुहम्मद गौरी को युद्ध में पराजित करने के पश्चात् क्षमादान नहीं दिया होता, तो आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता। रायपिथौरा के राजपूत समाज में भी उनके द्वारा मुहम्मद गौरी को दिए गए क्षमादान के लिए उनकी दबे मुँह आलोचना की जाती है। बेशक उनकी कितनी भी आलोचना की जाए अथवा उन्हें भारत में मुस्लिम साम्राज्य की  स्थापना का दोषी माना जाए, लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं था।

इस बात को समझने के लिए हमें मध्यकाल की वैश्विक परिस्थितयों का गंभीरता से अध्ययन करना पड़ेगा। अरब की भूमि पर इस्लाम धर्म के उदय होने के पश्चात् पूरे विश्व में इस्लाम की पताका फहराने के लिए क्रूर अरबी-तुर्की मुस्लिम हमलावरों की रक्त की प्यासी तलवार विश्व के किसी न किसी राज्य पर आक्रमण कर वहाँ रक्तपात, लूटमार व बलात्कार जैसे कुकर्म करके अपना नाम इतिहास के काले अक्षरों में लिखवा रही थी। विधर्मियों से युद्ध में जीतने के लिए विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी हर उल्टे से उल्टा व गलत से गलत तरीका अपनाने में कोई संकोच नहीं करते थे। उनका उद्देश्य किसी भी तरह से युद्ध जीतकर विधर्मियों का नाश करना अथवा उन्हें उनके धर्म को तिलांजलि दिलवा कर इस्लाम धर्म में धर्मान्तरित करना होता था। जिस समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा इस्लामी आक्रमण को झेल रही थी, उस समय भारत में राजपूत युग चल रहा था। भारत के इतिहास में सन 648 ईसवी से सन 1206 ईसवी  तक के समय को ‘राजपूत युग’ की संज्ञा दी गयी है। इस युग का आरंभ 648 ईसवी में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु से हुआ तथा इसकी समाप्ति 1206 ईसवी में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना से हुई। राजपूत शासक मुस्लिम आक्रान्ताओं से चारित्रिक रूप में अतिश्रेष्ठ थे। राजपूत शासकों में कुछ ऐसे विशिष्ट गुण थे, जिनके कारण उनकी प्रजा उन्हें आदर की दृष्टि से देखा करती थी। एक राजपूत योद्धा अपने वचन का पक्का होता था और वह किसी के साथ विश्वाघात नहीं करता था। वह युद्ध क्षेत्र में अपने शत्रु को पीठ नहीं दिखाता था। वह रणभूमि में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करना पसंद करता था। राजपूत योद्धा निशस्त्र शत्रु पर प्रहार करना महापाप और शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझता था।

राजपूत योद्धाओं के गुणों की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है, “यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि राजपूतों में साहस, देशभक्ति, स्वामिभक्ति, आत्म-सम्मान, अतिथि संस्कार तथा सरलता के गुण विद्यमान थे।“ डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने राजपूतों के गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “राजपूत में आत्म-सम्मान की भावना उच्च कोटि की होती थी। वह सत्य को बड़े आदर की दृष्टि से देखता था। वह  अपने शत्रुओं के प्रति भी उदार था और विजयी हो जाने पर उस प्रकार की बर्बरता नहीं करता था, जिसका किया जाना मुस्लिम विजय के फलस्वरूप अवश्यम्भावी था। वह युद्ध में कभी बेईमानी या विश्वाघात नहीं करता था और गरीब तथा निरपराध व्यक्तियों को कभी क्षति नहीं पहुंचाता था।“

इसके विपरीत विदेशी मुस्लिम आक्रांता बहुत ही क्रूर, बर्बर एवं अत्याचारी थे। वे युद्ध के दौरान व युद्ध के उपरांत निर्दयता व नीचता की सारी हदों को पार कर जाते थे। युद्ध के बाद पकड़े गए युद्धबंदियों को इस्लाम में धर्मांतरित होने के लिए विवश करना, इस्लाम को अपनाने से मना करने पर उनकी निर्दयतापूर्वक हत्या कर देना, उनके सिरों को काट कर उनकी मीनार बनवाना, स्त्रियों का सामूहिक बलात्कार करना, बच्चों व स्त्रियों को गुलाम बनाकर मुस्लिम सैनिकों को ईनाम स्वरुप बाँट देना अथवा विदेशी मंडियों में ले जाकर कौड़ी के भाव बेच देना उनके प्रिय कर्म थे। युद्ध के समय मुस्लिम शासक अपने सैनिकों में धार्मिक उत्साह भरते हुए युद्ध में उनके मारे जाने पर उन्हें इस्लाम के लिए शहीद होने का दर्जा दिए जाने व जन्नत मिलने तथा जन्नत में 72 हूरों के पाने का एवं युद्ध में जीते जाने पर ढेर सारा धन व अनेकों सुख-सुविधाओं के दिए जाने का लालच दिया करते थे, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम सैनिक युद्ध में मर-मिटने के लिए तैयार हो जाते थे। एक प्रकार से हम कह सकते हैं, कि जिस समय अरबी-तुर्की मुस्लिम आक्रांता युद्ध जीतने के लिए हर प्रकार का निकृष्ट से निकृष्ट उपाय आजमा रहे थे, उस समय राजपूत शासक अपने आदर्शवादी नियमों के संग अपने शत्रुओं से युद्धभूमि में जूझ रहे थे।

अब सम्राट पृथ्वीराज चौहान के भारत में मुस्लिम सामाज्य की स्थापना के लिए दोषी मानने की बात की जाए,  तो इसमें उनका बिलकुल भी दोष नहीं था। अपनी शरण में आए शरणागत को शरण देना तथा युद्ध में हारे हुए शत्रु को क्षमा प्रदान करना राजपूतों की प्रवृत्ति में सम्मिलित है। सम्राट पृथ्वीराज ने तो केवल अपनी जातीय प्रवृत्ति के अनुसार कर्म करते हुए अपने पराजित शत्रु मुहम्मद गौरी को बार-बार क्षमा प्रदान की। इसी बात का लाभ उठाकर मुहम्मद गौरी ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के साथ हुए युद्धों में कई बार असफलता मिलने के बावजूद बार-बार उनके राज्य पर आक्रमण किए और अंततः 1192 ईसवी में हुए तराइन के निर्णायक युद्ध में उन्हें पराजित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप भारत देश की पावन भूमि को बर्बर विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं ने अपने खूनी शिकंजे में कस कर अपवित्र करना आरंभ कर दिया।

सुमित प्रताप सिंह

मैं एक अदना सा लेखक हूँ और लिखना मेरा पैशन है। बाकी मेरे बारे में और कुछ जानना चाहते हैं तो http://www.sumitpratapsingh.com/ पर पधारिएगा।

2 thoughts on “सम्राट पृथ्वीराज चौहान नहीं थे दोषी

  • डाॅ विजय कुमार सिंघल

    इस लेख के निष्कर्षों से मैं असहमत हूँ। यदि कोई शत्रु एक बार क्षमा करने के बाद भी धोखा दे चुका हो, तो उसे दूसरी बात क्षमा करना बहुत बड़ी गलती है। सम्राट पृथ्वीराज चैहान की वीरता और महानता में मुझे कोई सन्देह नहीं है। पर शत्रु को समूल नष्ट न करके बार-बार क्षमा कर देना मेरी दृष्टि में शुद्ध मूर्खता और घमंड है।

    • सुमित प्रताप सिंह

      महोदय, अपनी वाणी को लगाम दीजिए। एक महान योद्धा को मूर्ख और घमंडी कहकर आप उनका अपमान कर रहे हैं। ऐसा तो नहीं है कि इस ‘जय विजय’ के कारण आपको कुछ अधिक घमंड हो गया है जो सोच-विचार किए बिना कुछ भी कहेंगे।

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