कविता

निजता

खिड़कियां थी मकानों में
जिससे झांक
बाहर देख लेते थे
आते जाते लोगों से
राम राम
गुफ्तगू कर लेते थे
खिड़कियां अब भी है मकानों में
पर बन्द या पर्दों से ढकी
न हम तुम्हें देख सकें
न तुम हमें देख सको
सबको डर है
अपनी अपनी निजता का
छुपाने को इसी
डाल रखे हैं पर्दे
अपनी अपनी खिड़कियों पर

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020