कविता

/ अखंड बनो इस जग में /

अखंड बनो इस जग मेंं
तृप्त नहीं होती इंद्रियाँ कभी
इच्छाओं की शाखाएँ
शांति नहीं देती हैं मन को
अखंड जगत के साथ
सत्संगति से हो पूर्ण जीवन
भेद – विभेदों की दीवारें
स्वार्थ के पाखंड हैं
यहाँ मनुष्य नहीं, विकार है
कुटिल तत्वों के जाल में
बंदी मत करो इस कपोत को
परिवर्तनशील जगत में
उड़ने दो मन को
निज धर्म के विकास से
होती है समता, ममता, भाईचारा
बातों से नहीं, कर्म से
वचनों से नहीं, आचरण से
नित्य साधना से
मन, वचन, कर्म की शुद्धि से
मध्यम मार्ग से, अष्ठांग सूत्र से
मुक्ति मिलती है इस जीव को।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।