संस्मरण

स्मृति-चलचित्र : सेवा-निवृत होते कार्मिक की अनुभूति

जो व्यक्ति सेवा निवृत्त नहीं हुआ हो, सेवा निवृत्ति से पूर्व वह शायद यह अनुभूति न कर सके। कहा जाता है कि भावनाएँ वैयक्तिक होते हुए भी सार्वभौमिक होती हैं। व्यक्तिगत भिन्नताओं के बावजूद भी काफी हद तक हम एक जैसी अनुभूतियों से गुजरते हैं। यूं तो ये अनुभूतियाँ मेरी व्यक्तिगत हैं। लेकिन अगर किसी भी सेवानिवृत्त अधिकारी को कुरेद कर देखें तो घटनाएँ, स्थान, पात्र आदि अलग-अलग होने के बावजूद भावनाओं के धरातल पर बहुत कुछ ऐसा ही होगा। भले ही चर्चा में हृदय को कठोर करके कोई कुछ कहे न कहे या न कह सके, लेकिन भीतर कुछ ऐसा ही होगा। अतीत की स्मृतियों की यात्रा करते-करते कुछ द्रवित तो अवश्य होगा। कुछ ऐसी ही अनुभूतियों के साथ सेवा सेवा निवृत होते कार्मिक के उद्गार।

मेरा कार्यालय, हमारा कार्यालय, पिछले बत्तीस वर्षो से आए दिन न जाने दिन में कितनी बार ये शब्द मुंह से निकलते रहे हैं। 30 जुलाई 2021 को सेवा-निवृत्ति के बाद अब शायद ये शब्द सार्थक न रहेंगे। लेकिन फिर भी मुंह में तो रहेंगे, न चाहूँ तो भी। शादी के बाद, दूसरे घर जाने के बाद भी महिला जीवन-पर्यंत माता-पिता के घर को अपना घर ही कहती है। जिसे हृदय ने अपना माना हो वह फिर पराया कैसे हो सकता है? चवालीस साल पहले छोड़ा वह स्कूल (विद्या मंदिर ), जहाँ मैं पढ़ा था, आज भी वह मेरा स्कूल है। इकतालीस साल पहले छोड़े दिल्ली के शिवाजी कॉलेज के पास रिंग रोड से जब गाड़ी निकलती है तो बच्चों को बताता हूँ, यह मेरा कॉलेज है। दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस के पास से गुजरते हुए कला संकाय की ऐतिहासिक पत्थर की इमारत के ऊंचे-लंबे गलियारे और केंद्रीय पुस्तकालय की दीवारें बुलाती सी प्रतीत होती हैं। विश्विद्यालय के अनेक कार्यक्रम, विद्यार्थी राजनीति और तब के तमाम साथी, सब सजीव हो उठते हैं।

मुंबई के निकट अंबरनाथ के पास से जब कभी मैं ट्रेन से वहाँ से गुजरा तो कभी ऐसा नहीं हुआ जब मुझे खपरैल के ब्लॉकों से बने केंद्रीय विद्यालय के वे दिन याद न आए हों, जहाँ मैं एक वर्ष तक अध्यापक रहा। 19 वर्ष की उम्र में वह मेरी पहली सरकारी नौकरी थी, जहाँ नन्हे-नन्हे मासूम बच्चे लगाव के चलते मुझसे अपने घर आने की जिद्द करते थे। ग्यरहवीं व बारहवीं के कुछ लड़के-लड़कियाँ मुझसे भी बड़े लगते थे। अब तो शायद वह स्कूल एक भवन में जा चुका है। अब उन नन्हे बच्चों के बच्चे भी उनकी तब की उम्र से बड़े हो चुके होंगे। चांदिनी चौंक और खारी बावली सहित पुरानी दिल्ली की बात आते ही 1982 से 1989 के बीच रौनक भरे बाजारों के बीच दुकानों के उपर स्थित बहुमंजिला स्कूल मस्तिष्क में जाग उठता है। दूध-जलेबी, रबड़ी, श्रावण में घेवर – फीणी, गर्मियों में फतेहपुरी की प्रसिद्ध लस्सी, सर्दियों में तिल की कुटी हुई फर्राशखाने की गज्झक और मालाईवाले कुल्लहड़ के गर्म दूध के साथ लाहौरी गेट की गर्म जलेबी की महक नथूनों में उतर जाती है। सुना है अब वह स्कूल बंद होने के कगार पर है। लेकिन तांगे – रिक्शे और सामान से लदी रेहड़ियों और खोमचों के शोरगुल के बीच स्कूल की वर्दी में ‘गुरूजी प्रणाम’ के स्वर मस्तिष्क के किसी कोने में गूंजायमान हो जाते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कार्यालय का मोह सेवा-निवृत्ति से पहले ही छोड़ देना चाहिए। वह हमारा नहीं रहनेवाला। यूँ कहा जाए तो दुनिया में हमारा कुछ भी नहीं। तो भी जब तक जीते हैं, सबसे संबंध और मोह होता ही है। तो यहाँ मोह क्यों छोड़ देना चाहिए?  कुछ दिन के लिए जब हम कहीं जाते हैं और लौटते हैं तो भी, मोह तो लगता है। हम तस्वीरों में उसे अपने साथ लाते हैं। एलबम में संजो कर रखते हैं। तुलसीदास जी ने भी लिखा है, “माधव मोह पास क्यों टूटे।” फिर एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए तो यह और भी कठिन है।

फिर जो स्थान इतने समय तक हमारी कर्मस्थली रहा हो, उससे मोह क्यों न हो? राजभाषा विभाग में हिंदी शिक्षण योजना और क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय में तो मेरे जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा व्यतीत हुआ है। मेरा तो इस कार्यालय से दोहरा रिश्ता है, यह मेरा ही नहीं, मेरी दिवंगत पत्नी डॉ. कामिनी गुप्ता का कार्यालय भी तो है। जब अपने कार्यालय आते-जाते तो साथ ही तो आते जाते थे। यहाँ भी साथ ही भोजन करते थे। जिन लोगों के साथ काम करते रहे हैं, किया है, वे सेवा मे हैं या सेवा निवृत्त है चुके हैं,  दुनिया में हैं या नहीं रहे, रिश्ते तो उनसे भी सदा ही रहेंगे। रिश्ते केवल उनसे नहीं हैं जिनसे मेरे बहुत मधुर संबंध हैं या थे, रिश्ते तो उनसे भी हैं और रहेंगे, जिनसे संबंध बहुत मधुर नहीं रहे। जिंदगी है तो सब तरह के लोग भी होंगे, कुछ खट्टे – मीठे अनुभव भी होंगे। कभी मैं, तो कभी दूसरे गलत रहे होंगे। कब कौन सही था या नहीं, इसका निर्णय करने वाला मैं कौन होता हूँ। यह तो आत्मविश्लेषण का विषय है। लेकिन वे भी मेरे कार्यालय का अभिन्न अंग हैं और रहेंगे। जब भी कार्यालय की बात आएगी तो उनकी बात भी स्वयंमेव आएगी।

क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय, मुंबई, जहां मैंने दस वर्ष तक कार्य किया। कितनी योजनाएं बनीं। पता नहीं लगता था कि टूर पर जा रहा हूँ या टूर पर घर आ रहा हूँ। गुजरात से गोवा तक आए दिन किसी शहर का सरकारी दौरा और नगर स्थित सरकारी कार्यालयों, बैंकों और कंपनियों के उच्च अधिकारियों  की बैठकें, संगोष्ठियाँ, कई कार्यालयों का निरीक्षण आदि। हर दिन एक नए कार्यक्रम के साथ शुरू होता था। कार्यालय में हर साल सत्यनारायण की पूजा का आयोजन होता था। सम्मेलन के समय खासी गहमा-गहमी होती थी । वहाँ की यादों की भी एक दुनिया है। वह भी तो मेरा कार्यालय है और सदा ही रहेगा भी। और हाँ, भले ही केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में कभी काम न किया हो,  लेकिन वह भी कभी अलग तो नहीं रहा। वहाँ भी व्याख्यान होते रहते थे। दोपहर भोजन के समय वहीं महफिल सजती थी और देश-दुनिया की तमाम समस्याओं पर चर्चा के माध्यम से उनके समाधान की तलाश होती थी। इन चर्चाओं में भी देश की चिंता ही केंद्र में होती थी।

मेरे कार्यालय का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा वह है, जहाँ गए हुए बरसों गुजर गए। जिससे 15 साल पहले खाली कर दिया था। जिसे ढूंढते हुए पहली बार अप्रैल 1989 में नियुक्ति-पत्र संभाले मैं कार्यभार ग्रहण करने पहुंचा था। जी हाँ, मुंबई में बेलार्ड एस्टेट स्थिति कॉमर्स हाउस का तीसरा माला। वहाँ अब वीरानी पसरी है, भवन अदालती झमेलों में फंसा है। अब वहाँ हमारा कार्यालय नहीं रहा। लेकिन वे पत्थर की दीवारें गवाह हैं हजारों घटनाओं की। हर कोना अनेक घटनाओं का साक्षी बनकर स्मृति-कोष के किसी कोने में छिपा है। वह जीता जागता कार्यालय आज भी चिरस्थायी है, अनन्त यादों को समेटे अपने समग्र यौवन के साथ। सपनों में अब भी आज का नहीं वही पुराना कार्यालय साकार हो कर आता है।

यहाँ अगर मैं चर्चगेट के निकट न्यू सीजीओ भवन के छठे तल पर स्थित प्रशिक्षण केंद्र का जिक्र न करूँ तो मन की बात अधूरी रहेगी। यहाँ मेरे सेवा में आने से पूर्व और बाद में न जाने कितनों ने पढ़ाया, कुछ समय मैंने भी पढ़ाया। मेरी पत्नी स्व. डॉ. कामिनी गुप्ता ने तो काफी समय पढ़ाया। वहाँ का हर अधिकारी-कर्मचारी उन्हें जानता-पहचानता था और बहुत सम्मान देता था।  तब एक निकट के ओल्ड सीजीओ भवन केंद्र से मैं भी भोजन के लिए वहाँ चला आता था। देर होने पर वह प्रतीक्षा करती थीं। साथ भोजन कर लेते थे। कितनी यादें समेटा था वह केंद्र। लेकिन फिर एक समय वह दिन भी आया जब उस कक्ष का फर्नीचर कबाड़ में बेचकर उसे खाली करने का दायित्व भी मुझे ही सौंपा गया। मैं अतीत को याद करते हुए उस कमरे और फर्नीचर को देख रहा था। तब भी भोजनावकाश का समय हो रहा था। अचानक स्वप्न की भांति आँखों में अतीत साकार हो उठा। मुझे लगा वहाँ बैठ मेरा इंतजार कर रही कामिनी कह रही हो, ‘आज बहुत देर कर दी आने में।‘ पत्थराया सा मैं वहाँ कुछ देर उसी कुर्सी में धंसा अतीत की स्मृतियों में डूबा रहा। उस कक्ष को खाली करवाते समय मेरे लिए अपने आंसू छिपाना कठिन हो रहा था। ऐसे कितने ही केंद्र हिंदी शिक्षण योजना का इतिहास अपने भीतर समेटे हैं।

यदि मैं अपने कार्यालय को मुंबई या नवी मुंबई के किसी भवन और उसमें काम करनेवालों तक ही समझूं तो यह मेरी नासमझी होगी। अहमदाबाद, वडोदरा,  पुणे, नागपुर, बेलगांव, मैसूर, बेंगलुरु और मैंगलुरु आदि, ये भी तो मेरे कार्यालय का अभिन्न अंग हैं। पुणे में हमारा कार्यालय है, बेंगलूरु में हमारा कार्यालय है।’ इस प्रकार की बातें तो सदा मुंह में आएँगी ही। इसी प्रकार मुख्यालय, पृथ्वीराज रोड, दिल्ली का प्रशिक्षण संस्थान, जहां अनेक बार साथियों के साथ प्रशिक्षण में शामिल हुए। परीक्षा शाखा, मध्योत्तर, दक्षिण, पूर्व और पूर्वोत्तर के हमारे क्षेत्रीय कार्यालय और उनके अंतर्गत अनेक केंद्र, जहां हमारे अनेक साथी हैं। इनमें से कुछ यहाँ से गए या वहाँ से यहाँ आए भी, वे भी तो मेरे ही कार्यालय का विस्तार हैं। वे पराए कैसे हो सकते हैं?

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, नरीमन पॉइंट और बीकेसी जैसी मुंबई की ऊँची अट्टालिकाओं में स्थित चमकते वातानुकूलित सभा कक्षों से ले कर किसी गोदामनुमा स्थानों पर घरघराते पुराने पंखे वाले वे सभी प्रशिक्षण केंद्र, जहाँ कभी मैंने  पढ़ाया, वे कार्यालय और वहां के अधिकारी और कर्मचारियों जिनके साथ काफी समय बिताया, वे भी तो मेरे कार्यालय का हिस्सा हैं। वे अनेक सरकारी बैंक, उपक्रम और केंद्रीय कार्यालय और उनमें काम करनेवाले मित्रगण, जहाँ नगर स्तर की या कार्यालय स्तर की और अन्य अनेक बैठकें की,  जिनके साथ सम्मेलन और कार्यक्रम आयोजित किए, व्याख्यान दिए जिनके साथ घूमे-फिरे, तफरी की। वे कहाँ मुझसे अलग हैं। इनमें कार्यालयों में अधिकारी – कर्मचारी बदलते रहे, कभी यहाँ, कभी वहाँ, कितनी बार मिलते रहे, साथ-साथ चलते रहे। किस-किस का नाम लूँ, प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष ही सही, वे भी तो मेरे कार्यालय का हिस्सा हैं। सरकारी तौर पर अब भले ही इनसे मेरा कोई नाता न रहे, लेकिन इन सभी से जो एक रिश्ता बन चुका है, वह कैसे खत्म हो सकता है ? जो पद और कार्यालय के संबंधों तक सीमित हो तो फिर वह रिश्ता ही क्या ? अगर रिश्ता होता है तो फिर सदा के लिए होता है।

चमकता – दमकता जो कार्यालय प्रत्यक्ष दिख रहा है, वह तो ईंट, सीमेंट, लोहे आदि से बना है, वह सीमित है,  नश्वर है। हो सकता है कल कोई परवर्तन हो यहाँ के बजाए कार्यालय कहीं ओर, किसी अन्य भवन में चला जाए। कल का बेलार्ड ऐस्टेट स्थित दफ्तर भी तो अब वहाँ नहीं रहा। वहाँ कितने वरिष्ठ और कनिष्ठ साथी आए और जाते रहे, यहाँ केंद्रीय सदन में भी यही सिलसिला चलता आ रहा है। उसी कड़ी में अब में भी कार्यालय की चारदीवारी से विदा ले रहा हूँ। अब मैं दैनिक गतिविधियों का हिस्सा नहीं रहूँगा। सरकारी बैठकों में भी न दिखूँगा, लेकिन देश की भाषाओं का जो बीड़ा उठाया है, उससे जो नाता जोड़ा है वह कैसे छूट सकता है । जिस कार्यालय की बात मैं कर रहा हूँ,  वह तो चिरस्थायी है, मन-मस्तिष्क में बसी अनेक यादों के साथ। मेरा वह कार्यालय बाहर नहीँ मेरे भीतर है। उससे मुझे कोई कैसे जुदा कर सकता है। कोई कुछ भी कहे, कुछ उजले और कुछ धुंधले चलचित्रों के साथ मेरा कार्यालय मेरा था,  है और सदा मेरा ही रहेगा। जीवन की अंतिम सांस तक। पथ के सभी साथियों को नमन।

— डॉ. एम. एल. गुप्ता

डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'

पूर्व उपनिदेशक (पश्चिम) भारत सरकार, गृह मंत्रालय, हिंदी शिक्षण योजना एवं केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण उप संस्थान, नवी मुंबई