बाल कहानी

दंड में छिपा दुलार

दिव्या, हीरा ,आभा , तीनों मित्र थीं। साथ साथ पढ़ती खेलती ।एक नहीं आती तो दूसरी उसे बुलाने पहुंच जाती। आभा काफी मेहनती थी। हीरा थोड़ी सी चंचल पर टीचर का कहना तुरंत मानती थी । यह बात अलग थी कि कभी-कभी बहाने भी बना जाती थी। टीचर तीनों में सबसे ज्यादा दिव्या को मानती थीं। दिव्या स्कूल में अनुशासित रहती ।टीचर की भी सारी बात मानती। टीचर भी उसको अलग से बुलाकर हालचाल पूछती ।अच्छी-अच्छी बातें भी समझाती। तीनों में अच्छी दोस्ती और प्रतिस्पर्धा रहती थी। आभा कभी कोई गलती करती या टीचर उसे डराती, तो थोड़ी देर चुप रहती, फिर सब कुछ भूल कर अपने काम में लग जाती कभी-कभी दिव्या और हीरा एक दूसरे से ज़्यादा सुंदर दिखने के लिए ख़ूब सारा काजल और पाउडर लगाकर आती। सभी बच्चों में हंसी का पात्र तो बनती ही, दिन भर सबसे अलग अलग भी दिखती । टीचर भी उन्हें ही देख करके मुस्कुराती खुशी का माहौल रहता। इधर हीरा जब काम पूरा नहीं कर पाती तो कभी डांट भी पड़ती, तो हंस कर टाल जाती और अपनी प्यारी प्यारी बातों से सबको हंसा देती। पर दिव्या इन दोनों से अलग हर बात पर मुंह फुला लेती और छोटी-छोटी बात को बढ़ा चढ़ाकर शिकायत के तौर पर मां पापा से बता आती ।

एक दिन किसी ग़लती की वजह से दिव्या को सज़ा मिली और दिव्या ने अपनी ग़लती सुधारने के बजाय घर जाकर स्कूल की ख़ूब शिकायत की ये जानते हुए भी कि टीचर उसको कितना प्यार करती थी। शिकायत जो करती सो करती अगले दिन खुद स्कूल ना जाकर अपनी मां को स्कूल के टीचरों से झगड़ा करने भेज दिया करती। टीचर उनकी मां -पापा को ख़ूब समझाते पर उनको समझ में नहीं आता। बस यही कहती “बेटी को नाज़ों से पाला है कोई डांटे- मारे यह गवारा नहीं। ” वह उस डांट के पीछे छुपे प्यार को देख ही नहीं पा रही थी।

एक बार टीचर ने सभी बच्चों को अलग-अलग टास्क दिए दिव्या हीरा आभा भी लघु नाटिका में रखी गई। अलग अलग ग्रुप बनाकर प्रतियोगिता होनी थी। प्रतियोगिता अगले हफ्ते किसी भी दिन कराई जानी थी। सभी तैयारी में लगे थे दिव्या भी अच्छा सीख रही थी। बच्चों को सिखाने के लिए बाहर से कुछ टीचर भी बुलाए गए। एक दिन दिव्या बार-बार गलत कर रही थी । टीचर ने उसे थोड़ा डाँटा और हल्की-फुल्की सजा भी दी । बस फिर क्या दिव्या घर बैठ गई। माँ को फिर से झगड़ा करने स्कूल भेज दिया। अबकी बार टीचर ने दिव्या का इंतजार नहीं किया। उसकी जगह उसके रोल को दूसरे बच्चे को दे दिया गया। तीसरे दिन प्रतियोगिता होनी थी । दिव्या अभी तक नहीं आई थी। शायद उसकी माँ ने उसे आने ही ना दिया हो । प्रतियोगिता में फर्स्ट हीरा और सेकंड आभा दोनों को क्रमश: गोल्ड और सिल्वर मेडल मिले।

जब दो दिन के बाद दिव्या स्कूल आई तो देखा आभा और हीरा नई फ्रॉक और मेडल पहने स्टेज पर खड़ी थी। सभी बच्चे उनके लिए तालियां बजा रहे थे। तभी दुःखी मन से दिव्या बोली -“काश मैं भी प्रतियोगिता में चली गई होती तो इन दोनों के साथ मैं भी यहां पर खड़ी होती लेकिन अब पछताने से क्या होता है।” समय बीत चुका था। दिव्या को अपनी गलती का भी एहसास हो रहा था। उसे समझना चाहिए था कि स्कूल में मिला दंड या आपस में हुए झगड़े को घर जाकर के बढ़ा -चढ़ाकर नहीं बताना चाहिए। उनके माता-पिता को भी सकारात्मक सोच रखनी चाहिए। जीवन में आगे बढ़ना है तो छोटी-छोटी बातों को पीछे छोड़ना होगा। टीचर हमेशा बच्चों का भला ही चाहती हैं क्योंकि टीचर के दंड में दुलार छिपा होता है।

— आसिया फ़ारूक़ी

*आसिया फ़ारूक़ी

राज्य पुरस्कार प्राप्त शिक्षिका, प्रधानाध्यापिका, पी एस अस्ती, फतेहपुर उ.प्र