हास्य व्यंग्य

सिस्टमपंथी

देश-भक्त ही देश की चिंता कर सकते हैं। मेरे इस कथन पर मुझे दक्षिणपंथी घोषित करते हुए उन्होंने कहा, “देशभक्त हुए बिना भी देशहित की चिंता की जा सकती है।” और फिर यह कहते हुए, “अरे हां भा‌ई! ये तंत्र-मंत्र शक्तिधारी ही देश-भक्त हैं…बाकी हमां-सुमां तो रियाया हैं..हम डाइरेक्ट देश के काम थोड़े ही न आ सकते हैं, देशभक्तों को अपनी पीठ पर ढोना ही हमारी देशभक्ति है! एक बात कहूं..! इस तंत्र-मंत्र ने देश का बेड़ा ग़र्क कर दिया है..दिखाते रहिए अपनी देशभक्ति..” कमरे से बाहर चले ग‌ए। मुझे अपनी देशभक्ति पर थोड़ी शर्मिंदगी जैसी फीलिंग आई। सोचा, आखिर कलाकार भी तो अपनी भावनानुरूप ही मूरत गढ़ता है, तो देशभक्त हुए बिना देश की मूरत कैसे गढ़ी जा सकती है? फिर तो देशभक्त होना भी एक कलाकारी ही है, चूंकि सरकारें देशभक्त होती हैं इसलिए छेनी-हथौड़ा से नहीं, अपने तंत्र से देश को गढ़वाती हैं। मुझे क्षोभ हुआ कि राष्ट्र की मूरत गढ़ने वाले इसी कलाकार-तंत्र को वे महाशय गाली देकर चले ग‌ए थे।

उल्लेखनीय है कि मेरे ग्रेजुएशन के दिनों में राजनीतिक विषय के रूप में देशभक्ति की ख्याति नहीं थी। इसका ढिंढोरा भी नहीं पीटा जाता था और न ही इसमें कोई प्रतियोगिता थी। इसे मूर्खता का पर्याय भी नहीं माना जाता था। हाँ, खेती-किसानी की इज्जत न तब थी और न अब है। क्योंकि देशभक्तों की वैरायटी में मेहनतकशों की गणना न पहले थी और न आज है‌। लेकिन किसान देशद्रोही भी नहीं हुआ करते थे‌। इधर देश के स्टेनलेस स्टील फ्रेम जैसे तंत्र में जुड़ने वाले सफल अभ्यर्थियों के ऐसे वक्तव्यों से कि, इस फ्रेम से जुड़ने पर देश की अच्छे से सेवा करने का खूब अवसर मिलता है, मैने निष्कर्ष निकाला कि फावड़ा-कुदाल या खेती-किसानी में जिंदगी भर पसीना बहाने की बजाय देश की प्राॅपर तरीके से सेवा करने के लिए सरकारी-तंत्र के फ्रेम वाला प्लेटफार्म चाहिए। स्पष्ट था कि किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे के वश में देशसेवा जैसा पवित्र कार्य नहीं, इसके लिए बड़ा बनना होता है। और बड़े लोग ही देशहित के पवित्रनुमा कार्यों को सिस्टमेटिक ढ़ग से सुगम और फलवान बनाकर निपटाते हैैं। फ़िलहाल मुझे देशभक्ति, देशसेवा और सिस्टम के अन्तर्सम्बन्धों द्वारा बड़ा बनने की प्रक्रिया समझ में आ गई थी। अंततः मैंने कम्पटीशन-वम्पटीशन फाइट करना शुरू किया और आयोग ने मुझे भी स्टील फ्रेम का एक छोटा पुर्जा बनाकार बड़ा बनाने वाले कामों को अमलीजामा पहनाने का अवसर प्रदान किया।

लेकिन उन दिनों की अपनी भावुकता पर मुझे तरस आती है। संयोग से उस वक्त देश में सूखा भी पड़ा था। इथियोपिया से लेकर भारत तक सूखे से लोग बेहाल थे। शायद वह तस्वीर, जिसमें भूख से हड्डी की ठठरी बनी एक जीवित अफ्रीकी बच्ची को एक गिद्ध ताक रहा था, उन्हीं दिनों की है। आज भी जब-तब वायरल होती इस तस्वीर से वह गिद्ध-दृष्टि याद आती है। उस अकाल-काल में किसानों की पीड़ा देख मेरी भावनाएं द्रवित होकर बूंद की तरह सहसा उछल पड़ी थी। यह सच है, जब जोर की भावुकता आती है तो आदमी कविता करने की ओर भागता है और मैं भी उसी ओर भागा था। मैंने अपनी कविता में बादलों से बरसने का आह्वान किया, हे बादल आओ बरसो/ कुछ तो दे जाओ/ खेत हमारे और हम प्यासे हैं/ हलक सूख गया है/ यह पीड़ा है प्यासे इस तन-मन की। लेकिन मुझे यह सोचकर हँसी आती है, यदि मेरी कविता की भावुकता में बहक कर बादल बरस पड़ते तो सूखे की आपदा का क्या होता? जबकि आपदा में मिलने वाले बजटीय डोजों से उत्पन्न देशभक्ति में राहत के काम शुरू होते हैं, जिसके परिणाम देश ही नहीं विदेश में भी पहुंचते हैं। अखबार में छपे इस सर्वे कि लाॅकडाउन की अवधि में स्विटजरलैंड के खातों में भारतीयों ने खूब धन जमा किए जो दुनियां में सर्वश्रेष्ठ है, से इसकी पुष्टि होती है। इसीलिए मैं मानता हूँ कि अकाल-काल में उपजी मेरी वह कवित्व-भावना देशप्रेम नहीं, देशद्रोह वाली थी। जो सूखा खत्म कराके देशभक्तों को बूस्टर डोज जैसे उनके प्राप्तव्य से वंचित कराने जैसा था। खैर अब मुझे भावुकता पसंद नहीं, क्योंकि यह आदमी को अंधा बना देती है, इसमें पड़ा व्यक्ति नफा-नुकसान की नहीं सोच पाता।

वैसे तो सिस्टममय सब जग जाना। लेकिन सरकारी सिस्टम की बात ही निराली है। इसके बगैर देश का बेड़ा ग़र्क हो जाए! इसमें आकर ‘मदर इंडिया’ का भगवान और शैतान के बीच वाला इंसान, आवश्यकतानुसार वह जो है वह न होने की और जो नहीं है वह हो जाने की अपनी क्षमता से सिस्टम के गुड-बुक में नाम दर्ज कराकर दोनों से भी उच्च कोटि का हो जाता है। जो भी हो, देश के काम आने वाली ऐसी तंत्रात्मक शख्सियतें दक्षिणपंथी ही मानी जाएंगी। यहां महत्वपूर्ण है, जो तंत्रात्मक नहीं वह देशभक्त भी नहीं, चाहे वह दक्षिणपंथी ही क्यों न हो! लेकिन लोकप्रियता की श्रेणी हांसिल कर चुके कुछ लोगों का अंदाज थोड़ा अनोखा है। जैसे कि एक लोकप्रिय महानुभाव ने तंत्र के हम जैसे कल-पुर्जों की एक गोपनीय बैठक में बहुत ही मीठी वाणी में सजेस्ट किया था, “वैसे तो आप लोग अपने हिसाब से काम करो, लेकिन जो करने के लिए हम कहते हैं उसे न मानने वाले से हम दूसरे तरीके से निपटते हैं।” शायद यह एक माफिया किस्म वाली देशभक्ति थी। जो घर बैठे अपने सिस्टम से लोक और तंत्र दोनों का काम अकेले निपटा सकती थी। फ़िलहाल अभी तक संवैधानिक दर्जा प्राप्त न होने से इसे वैधता हांसिल नहीं है, इसके लिए सिस्टम को निजी टाइप से अन्डरवर्ल्डात्मक होने की बजाय सरकारी टाइप का तंत्रात्मक होना चाहिए। इसके रहस्यमयी वातावरण को समझना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, अन्यथा तंत्र में होते हुए भी वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति हो सकती है।

वैसे सिस्टम अदृश्य ही होता है, क्योंकि जो दिखाई पड़े वह सिस्टम ही क्या!! इसका कोई लेखा-जोखा या प्रमाण भी नहीं, बल्कि तंत्र में भाव और अभाव रूप में विद्यमान होकर उसे नियंत्रित और संचालित करता है जैसे ईश्वर सृष्टि को! इसकी अनुभूति सृष्टि में ईश्वर के जैसी इसमें डूबने पर ही होता है। कहते हैं ईश्वर ने सृष्टि को रचा और उसे विकसित होने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है। लेकिन सिस्टमीय-तंत्र, दांत वाले छोटे-बड़े चक्कों के समूह जैसा है जो अपनी मर्जी से नहीं, आपस में फंसकर एक दूसरे को नचाता है। इसके पीछे मंत्राध्यक्ष का मंत्र-बल होता है। इसे ग्रहण कर तंत्राधीश अपने दंतबल से इस चक्कीय सिस्टम को नचाता है। लेकिन देशभक्ति के कृत्य का श्रेय मंत्राध्यक्ष को जाता है। उसका मंत्र-बल उसे ऋषि-मुनि की श्रेणी में खड़ा कर देता है। इसीलिए भारत को ऋषियों-मुनियों का देश कहा जाता है, इनके सहारे ही इस देश को उसका प्राप्तव्य प्राप्त होता आया है।

खैर, शुकर हैं भारत माता के नक्शे और स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का! जिसके निरंतर अनुश्रवण से मेरे मन में देशभक्ति की तरंगे उठी और मुझे भी आनंदित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। क्योंकि देश सेवा वाले भाव के साथ बजटीय डोज की मिक्सिंग कर सिस्टमीय-तंत्र में जबर्दस्त पेराई होती है, इससे निकलते रस से सराबोर हुआ मन देश-सेवा के कृत्य से सुखी होकर आनंदित होता है। इस प्रकार तंत्राधीश के निर्देशन में तंत्रीय देशभक्त भी देश की मूरत गढ़ते-गढ़ते अपना प्राप्तव्य प्राप्त करता है। यही देशसेवा का सिस्टमेटिक ढंग है, इसमें विवेक, भावना और बुद्धि का कोई स्थान नहीं, बस घूमने के लिए दाँत से दाँत सटे हुए होने चाहिए। खैर, यहां आकर क्या दक्षिणपंथी और क्या वामपंथी! और क्या सिस्टमपंथी!! सबकी गति एक ही है, बाकी जनता को भरमाने की चीजें हैं।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.