धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सामाजिक चिंतन

मातापित्रोर्मलोद्भूतं मलमांसमयं वपुः।
त्यक्त्वा चांडालवद् दूरं ब्रह्मीभूय कृती भवः।।
(विवेकचूड़ामणि दूसरा भाग, श्लोक २८७)

भगवद्गीता, उपनिषत् आदि धर्म ग्रंथों को मैं स्नातक के पूर्व से ही पढ़ता था, ना केवल हिंदू धर्म ग्रंथ की बल्कि कुरान, बाइबल को भी मैंने तेलुगु में पढ़कर समझने की कोशिश की। लेकिन मेरी जिज्ञासा कभी पूरी नहीं हुई। शोधार्थी बनने से अध्ययन की एक व्यवस्था आ जाती है और विचार – तर्क शक्ति बढ़ने के साथ – साथ रचनात्मक क्षमता का विकास होता है। रचनाकार बनना मेरी प्रबल चाह रही। स्वस्थता के क्षणों में कभी भी मैं आराम नहीं लेता। अस्वस्थ हो जाने पर भी कुछ न कुछ पढ़ता हूँ, अपना विचार कायम करते आगे बढ़ता हूँ। अच्छे वचन जहाँ भी हो स्वीकारता हूँ। दलित साहित्य का अध्ययन विशेषकर मान्य डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी का साहित्य मुझे हिला दिया है। उनके स्नेह एवं प्रेरणा मेरे लिए अमूल्य देन है। शोध अध्ययन के संदर्भ में हमारे निर्देशक महोदय जी ने हमें स्वेच्छा वायु दी। उन्होंने मान्य डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी के साहित्य की ओर ईशारा करके विचारोत्तेजक बनाया है और अध्ययन का क्षेत्र कायम कर दिया। मैंने हाशिये की जनता की वाणी बनने का संकल्प लेकर अपनी रचनाएँ शुरू की। जो भी अध्ययन करता हूँ, उसमें यथार्थ को ढूँढ़ने का प्रयास करता हूँ। वैज्ञानिक सोच देने का श्रेय दलित साहित्य को जाता है। समाज के हित में सामंजस्य की दृष्टि से आगे बढ़ता हूँ। बुद्ध-बाबासाहब की विचाधारा का आकलन, मान्य कर्दम जी के साहित्यिक चेतना से विश्व कल्याणकारी चिंतन को विकसित करता हूँ।

विवेक चूड़ामणि आचार्य शंकराचार्य से निकला ग्रंथ है। ब्रह्म, जीव, जगत एवं मानवीय व्यवहार की बातें इसमें देखी जाती हैं। इसका अनुवाद कई भाषाओं में हुआ है और इस पर कई व्याख्याएँ हुई हैं। मैंने इसे तेलुगु में पढ़ा था। पढ़ते – पढ़ते मेरी दृष्टि उल्लिखित श्लोक पर पड़ी। सोच में पड़ गया कि आदि शंकराचार्य जी अद्वैत सिद्धांत के महान आचार्य थे। अद्वैत वेदांत की प्रमुख शाखा उनकी रही। उनका प्रबल विचार व सिद्धांत था कि ‘ब्रह्म सत्य है जगत् मिथ्या’। जीव और ईश्वय में कोई भेद नहीं है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का यह विचारोक्ति इतना फैला है कि मनुष्य अपने को साक्षात् ब्रह्म कहने लगे और देव भी बन जाने लगे। समाज में यही विचार-चिंतन व्याप्त हो गया कि सबमें एक ही तत्व है।

उपर्युक्त श्लोक इसलिए हमने चर्चा के मुद्दे में लाने का प्रयास किया है कि इसमें अद्वैत में बाद्वैत है अर्थात् ब्राह्यणवादाद्वैत है। जिस तरह मनुस्मृति त्यज्य है वैसे ही हिंदू धर्म ग्रंथों के कई श्लोक भी।ये समाज में ऊँच – नीच एवं असमानता को पोषण करनेवाले हैं। श्लोक में बताया गया है कि हमारा शरीर माता – पिता के मल – मूत्रों से उत्पन्न हुआ है। यह नीच व हेय है। इसे दूर रखना है अर्थात् अपना नहीं मानना है। विचारणीय बात यह है कि इस शरीर को चाँडाल से तुलना किया है। परोक्ष रूप से चाँडाल को दूर रखने की बात करता है। चाँड़ाल कौन है। वह भी मनुष्य है। उसका भी अन्यों की तरह अपना जन्म है। उसके अंदर भी आत्मा है। उसे कुटिलता से नीच कैसे बना दिया है? उसके साथ हजारों सालों से अस्पृश्यता का व्यवहार कर किस तरह अपमानित किया है, शोकातुर बना दिया है। यह पाप नहीं है? समाज से उनको अलग क्यों रखा है? अगर घट – घट में ईश्वर है तो चाँडाल में क्यों नहीं, दलितों में क्यों नहीं?। मल मूत्रमय शृरीर को ज्यादा महत्व नहीं देना है, ठीक हो सकता है। लेकिन मनुष्यों के बीच भेद उत्पन्न करनेवाला यह तुलन कौन सा वेदांत है। समाजिक असंतुलन का यह विचार समाज के लिए उचित नहीं है। व्याख्याता इस बात को छोड़कर व्याख्या करना भी ठीक नहीं है। समता – बंधुता, भाईचारे की भावना से ही समाज की भलाई होती है। आध्यात्मिक आवरण में वर्ण – जाति का पालन – पोषण करना मानव जाति के साथ द्रोह है। यह अमानवीय है, निंदनीय है।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।