सामाजिक

संयुक्त परिवार

संयुक्त परिवार वहां होता है जिसमें एक साथ एक ही घर में कई पीढ़ियों के लोग रहते हो | उनकी रसोई, पूजा-पाठ, इन संपत्ति सामूहिक होती है | परंतु वर्तमान स्थिति में हर कोई एकल परिवार चाहता है | जहां बस पति पत्नी और उनके बच्चे रहते हो | समझ नहीं आता कि संयुक्त परिवार के साथ रहने में बुराई क्या है? हर किसी को अच्छे संस्कार मिलते हैं अनुशासन में जीवन व्यतीत होता है | परंतु एकल परिवार का मुख्य कारण यह है कि मनुष्य की सहनशीलता बहुत ही कम होती जा चुकी है | वर्तमान का एक कटु सत्य है भी है कि एक बेटी कभी भी अपनी मां को दुखी नहीं करेगी, परंतु एक बहू अवश्य ही अपनी सासू मां को पीड़ा दे सकती है | वह घर में सुख का परिवर्तन भी बना सकती है या फिर क्लेश भी मचा सकती है | यह सब एक मनुष्य की बुद्धि पर निर्भर करता है | ऐसी स्थिति में एक पिता और भी कमजोर पड़ जाता है क्योंकि उनका पुत्र केवल पुत्र ही नहीं किसी और का पिता भी बन चुका होता है | मन में सदैव अशांति छाई रहती है उनकी , संतान उन्हें छोड़कर अपना एकल परिवार ना बसा ले | जो संतान पिता के मन में इतने डर और शंका पैदा कर दे और ऐसी संतान का क्या लाभ |

मेरा प्रश्न उन सारे पुरुष से भी है लोगों के बहकावे में आकर अपना घर त्याग देते हैं | अरे पराई तो लड़कियां होती है ना परंतु तुम स्वयं अपने ही घर में पराए कैसे हो जाते हो? उन पर तुम संदेह कैसे कर लेते हो कि वही तुम्हें हानि पहुंचाएंगे ? ऐसी परिस्थिति में शांतिपूर्वक कोई समाधान निकालना अति आवश्यक है | परेशानियां हर घर में प्रवेश करती है इसका अर्थ यह नहीं कि हर रिश्ते से मुंह मोड़ा जाए | यदि कभी ऐसी परिस्थितियां आपके समक्ष आए व आपकी अर्धांगिनी आप को घर छोड़ने पर विवश कर दें तो कृपया उनसे एक ही बात कहिए कि ‘चलो आपके लिए मैं अपने घर को त्याग देता हूं | परंतु आपको भी मेरे लिए अपने पीहर से सारे रिश्ते त्यागने होंगे | तभी ही मैं आपकी मांग स्वीकार कर सकता हूं’| मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ब्रह्मांड में कोई भी स्त्री में कोई भी स्त्री इस बात पर स्वीकृति नहीं देगी और जो इस बात को स्वीकार कर दे तो समझ लेना कि वह मनुष्य किसी का सगा नहीं हो सकता | जो व्यक्ति अपने पीहर से नाता तोड़ दे ,अपने ससुराल वालों को विवश कर दें | वह मनुष्य आपके जीवन मे सिवाय पीड़ा के आपको कुछ नहीं दे सकता पर आजकल मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है | इंसानियत खो गई है एक बेटी घर से विदा होकर भी पराई नहीं होती परंतु एक बेटा स्वयं अपने परिवार से पराया हो जाता है | यह सारी परिस्थितियां माता-पिता को लाचार बना देती है | एक पिता के मन में यही विचार आता होगा कि मैंने ही कुछ बुरे कर्म किए होंगे जो यह असहनीय पीड़ा मेरे भाग्य में लिखी गई है | वह भीतर से पूरी तरह टूट जाता होगा |

यदि हमारी हथेली जल जाए और उस जलन पर दही डाला जाए तो वह जलन कम हो जाती है | और हमें राहत देती है | परंतु जब एक संतान अपने पिता को पीड़ा पहुंचाती है व उन्हके हरे भरे जख्मों पर जख्मों पर चाहे कितना भी दही डाल दो उनकी जलन कोई भी काम नहीं कर सकता | उनके ह्रदय में दुख की की अग्नि प्रवेश कर चुकी होती है | और ऐसी कमज़ोर स्थिति में दुनिया, समाज व रिश्तेदार उन्हें अत्यंत पीड़ा पहुंचाने का कार्य करते हैं | यह कहते हुए बहुत दुख होता है परंतु वर्तमान स्थिति इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि हर उदास व्यक्ति को पीड़ा देना ही मनुष्य का लक्ष्य बन चुका है | दुनिया यह भी विचार नहीं करती कि वह व्यक्ति जो इतनी पीड़ा से गुजर रहा है और मैं उनकी सहायता करने के बजाय उन्हें और निराश कर रहा हूं | वह तो बस उचित मौके का पूर्णता से लाभ उठाने में मग्न हो जाते हैं | यदि आपको दूसरों को पीड़ा में देखकर आनंद प्राप्त होता है तो आपका न्याय सिर्फ भगवान ही कर सकता हैं |

मैं उन सारे माता-पिता से पुण्य निवेदन करना चाहती हूं कि | अपने दुख में कभी भी अपना आपा खोए | यह उतार-चढ़ाव ही हमें जीवन में नई मंजिल की ओर ले जाते हैं | और कभी भी भगवान पर क्रोधित नहीं होना चाहिए | क्योंकि हर परिस्थिति के पीछे एक कारण अवश्य छुपा होता है | साध्वी जया किशोरी जी इसका कारण एक कहानी के जरिए बड़ी सरलता से स्पष्ट करती है |

एक स्त्री घर के आंगन में बैठे-बैठे बच्चों को मैदान में खेलता देख रही थी | तभी उसे विचार आया कि रसोईघर से सारे बच्चों के लिए चॉकलेट लेकर आ जाती हू | खेल-खेल में सारे बच्चे आपस में लड़ने लग जाते हैं | और जब वह स्त्री रसोई घर से बाहर आयीं और सारे बच्चों को लड़ते देख वह उनके निकट चली गई | और सिर्फ अपने बच्चों को मैदान से लेकर घर पर आयीं और उसे खूब डांट फटकार लगाई | क्योंकि सारे अन्य बच्चों को वह नहीं डांट सकती नहीं डांट सकती थी | वहां अन्य बच्चे उसके अपने नहीं थे अपने नहीं थे|

इस दृश्य से हमें यह सीख मिलती है | कि भगवान दंड भी उसी मनुष्य को देते हैं जिससे वहां अपना मानते हैं | यदि मनुष्य से गलती हो जाए तो उसे वह अवश्य दंड देते हैं | और जिसे वह अपना नहीं मानते उसे स्वतंत्र छोड़ देते हैं | यदि आपके जीवन में दुख का प्रवेश हो तो भगवान से धन्यवाद कहिए क्योंकि उन्होंने आपको इस लायक समझा | मेरी भी सारे पिता जनों से यही विनती है कि यदि कभी आपकी संतान आपको दुख दे तो इसका दोष स्वयं को , ना समझे वे | व अपने संस्कारों पर कभी भी प्रश्न ना उठाएं | यह बस आपकी संतान के दुर्भाग्य है कि वह अपने माता पिता के चरणों के चरणों का सुख भोगने के पर्याप्त है ही नहीं |

हमने देखा होगा कि मनुष्य की बढ़ती आयु में वह अनेक रोगों से पीड़ित हो जाता है | इसका मुख्य कारण है मानसिक तनाव, जैसे कि उच्च रक्तचाप ,मधुमेह, कैंसर आदि रोगों से शिकार हो जाते हैं | मानसिक तनाव के कारण यह सारे रोग मनुष्य के भीतर प्रवेश कर जाते हैं | और जब कभी घर में तनाव हो तब एक स्त्री अश्रु बहाकर अपना दर्द बाहर व्यक्त कर सकती है | परंतु एक पुरुष यह नहीं कर पाता | वह सारी पीड़ा का भार अपने ह्रदय में उठाता है | यदि वह लड़खड़ा जाए तो परिवार की नींव ही डगमगा जाती है | जिंदगी की कठिन से कठिन परिस्थिति में भी एक पिता अपना धैर्य नहीं खोता | परंतु इन सब का प्रभाव उनके शरीर पर अवश्य पड़ता है | वह अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं | और कहीं सारे रोगों से पीड़ित हो जाते हैं | आज के युग में माता-पिता की सबसे बड़ी समस्या ही उनकी संतान बन चुकी है | वह उनकी मानसिक तनाव का कारण भी उनकी संतान ही बन चुकी है

— रमिला राजपुरोहित

 

 

 

रमिला राजपुरोहित

रमीला कन्हैयालाल राजपुरोहित बी.ए. छात्रा उम्र-22 गोवा