कविता

कुछ भी स्थिर नहीं है

हम हैं इन्सान…
जीवन नामक रास्ते पर जा रहे हैं, बिना देखते हमारी मंज़िल
बहुत खुशी से जीते थे हम, थे नहीं इतने दुख परेशान
हम साथ ही रहे थे बिना किसी डर या शक

अचानक फैल गयी यह वायरस, तोड़ दिये सब बंधन हमारे
दो मीटर दूरी एक दूसरों से रहना, होंगे बिना किसिको गले लगाना
कोविड १९ नामक शैतान, आ गया है इस दुनिया में

सुबह से जाने को मदरसा, चाहते हैं हम आज भी
मगर हम वह करें कैसे? यह वायरस अभी भी घूमती है हमारे साथ

मरते जाते हैं करोड़ लोग, कोई-न-कोई इस मोड़ पर भी
साँस और जीवन भीख माँगते हुए
एक बचेगा तो इस पल में, तीन चार छोड़ जाते हमें
नहीं समझे क्या करें हम? यह ख़तरनाक वायरस के साथ

कौन यह दुख समझता है? किसको हम बताएँगे?
किनसे अब दुआ माँगें? लगते हैं भगवान भी छोड़ गये हम

अमीर लोग भी नहीं बच पाये, तो गरीबों के क्या बताए
बच्चे-बच्ची चिल्लाते नहीं, बहुत सारी जगह ख़ामोशी ही हैं
बिना माँ-बाप के, बिना भाई-बहन के कहीं एक रोता है
ऐसा खतरनाक वक़्त के बीच, चुराके जान वायरस खुश होता

अस्पताल में रहनेवाले भी, हर पल पूरी कोशिश करते जान बचाने
वे भी नहीं समझ सकते, वे इसमें क्या करें? क्या न करें?
ऑक्सीज़न के बिना तड़पती हुई ज़िंदगी को, सपना देखने को भी वक़्त नहीं
क्योंकि वे लोग नींद न देखे, कम से कम बहुत दिन हो चुके

मास्क पहनकर रहने से, हमारे कानों में दर्द होने लगे
नहीं ले पायी साँस भी ठीक तरह, चेहरे में पसीना बहने लगे

सुनो ना यह बात भी अब, मेरे प्यारे दोस्तो !
कानों में दर्द होने दो, इस वायरस से बचने
कोविड़ में फ़स गये तो, तुम्हें ऐसा दर्द लगेंगे
सोचने को भी वह दर्द, कोई मनभावना तो नहीं लगें

दुनिया से कोविड़ कब गायब होगी? किसीको भी यह नहीं पता
रहना चाहिए हम सब घर, बिना बाहर घूमे-फिरे
जैसा चलता हूँ, मैं तो और नहीं देख सकता
अरे भगवान कहाँ हो तुम? नहीं देखभाल कर सकते हो क्या?

वायरस की कोई दवाई नहीं है, वजह भी किसीको पता भी नहीं है
अभी तो समझ सकेगा कि यह संसार तो इतना डरावनी है

यह एक ऐसी मौत है, बिना अलंकृत आकार का ताबूत नहीं विरासत की
यह एक ऐसी मौत है, तीन दिन क्या! एक दिन भी नहीं रख सकती
यह एक ऐसी मौत है, जीवन की अस्थिरता प्रकृति द्वारा बतायी गयी
यह एक ऐसी मौत है, जो हम प्यार से गले लगा के अलविदा नहीं कह सकती
यह एक ऐसी मौत है, मृगतृष्ण के पीछे जानेवाले को ज़िंदगी की असली रूप दिखायी देती
यह एक ऐसी मौत है, अनुमति से हुई कुदरत की

क्या कहें हम? क्या न कहें? क्या सोचें हम? क्या न सोचें?
यह नहीं हमारी ज़िंदगी की मंज़िल, आगे और जाना हैं इस रास्ते पर
फिर भी लगते हैं, इस दुनिया में कुछ भी स्थिर नहीं है।।

— डब. के. नॉसिका यसन्ति मदुमानी

नॉसिका यसन्ति

मैं श्री लंका के केलनिय विश्वविद्यालय की एक हिंदी लेक्चरर हूँ