राजनीति

जातिगत जनगणना चर्चा का विषय क्यों ?

जनगणना अर्थात् ‘लोगों की गणना ‘ इंग्लिश में इसे‘ सेंसस’ कहते हैं । विश्व के समस्त देशों में भारत की जनगणना प्रशासनिक दृष्टि से सबसे जटिल प्रक्रियाओं में से एक हैं । इसमें प्रत्येक दस वर्ष के निश्चित अंतराल की अवधि में भारत में रह रहे लोगों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और जनसंख्या के पहलुओं को ध्यान में रखकर आंकड़ा एकत्रित किया जाता हैं इसका मुख्य कारण यह कि–“ भारत अनेकता में एकता के लिए प्रसिद्ध हैं।”
यदि जनसंख्या की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो–प्राचीन साहित्य ‘ ऋग्वेद ‘ में 800–600 ईसा पूर्व में जनगणना का उल्लेख किया गया हैं ।वहीं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लगभग 321–296 ईसा पूर्व में कराधान के उद्देश्य से जनगणना को राज्य की नीति में शामिल करने पर बल दिया गया हैं । और मुगल कालीन अकबर शासन काल के दौरान प्रशासनिक रिपोर्ट ‘ आइन–ए –अकबरी ‘ में जनसंख्या,उद्योग और समाज के अन्य पहलुओं से सम्बन्धित विस्तृत आंकड़ा शामिल किया गया हैं ।
भारत में पहली बार जनगणना गवर्नर जनरल लार्ड मेथो के शासनकाल में वर्ष 1872 में की गई थी हालांकि यह जनगणना अलग– अलग हिस्से में की गई थी कितुं वर्ष 1881में पहली बार पूरे देश की एक साथ जनगणना की गई । और प्रथम बार जाति जनगणना वर्ष 1931में की गई थी, उसके बाद अब तक जातिगत जनगणना न हो सकी हैं । साथ ही स्वतंत्र भारत में जनगणना अधिनियम 1948 में लागू किया गया । और वर्ष 1951 में जनगणना संगठन की स्थापना तदर्थ संस्थान के रूप में की गई ,यह स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना थी, वर्ष 2021 की जनगणना स्वतंत्र भारत की 8 वीं जनगणना होगी ।
सर्वप्रथम मई 1949 में जनसंख्या और जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े जुटाए गए थे और गृह मंत्रालय के अन्तर्गत महापंजीयक एवम् जनगणना आयुक्त कार्यालय की स्थापना की गई बाद में इसी कार्यालय को जन्म–मृत्यु पंजीकरण अधिनियम 1969 के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई । कुछ इस तरह से भारतीय जनगणना की पृष्टभूमि तैयार की गई ।
हालांकि वर्तमान समय में जनगणना से कही ज्यादा जातिगत जनगणना चर्चा का विषय बनी हुई हैं गौरतलब है कि– स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना से ही sc/st की जनगणना की जाती रही हैं किन्तु ओबीसी की जनगणना नहीं की जाती हैं इसके परिप्रेक्ष्य में अनुमानित आंकड़ा ही परोसा जाता रहा हैं अब तक । वर्ष 1931 में की गई जाति जनगणना को ही आधार बनाया जाता रहा हैं । इसके पीछे राजनीतिक ,सामाजिक, आर्थिक और जातिगत समीकरण उत्तरदाई हैं । वर्ष 1990 के पहले तक तो ओबीसी को आरक्षण तक नहीं दिया जाता था परन्तु 1990 में चर्चा का विषय बना और 1993 में पूर्णत: 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया ।किन्तु वर्ष 2017 में हुए रोहणी आयोग की रिपोर्ट की मानें तो इस सूची में शामिल ओबीसी के 2633 में करीब 2486 जातियों में से 1000 से ज्यादा को इस आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिल पाया है इसका कारण ओबीसी में ही शामिल समृद्ध और प्रभावशाली लोग ही हैं ।जो कि वर्ष 2021 की जनगणना के विचारणीय बिंदुओं के से एक हैं । जातिगत जनगणना 2011 में भी चर्चा का विषय थी हालांकि उस समय वर्ष 2008–2010 में एनडीए सरकार ने जातिगत जनगणना के प्रस्ताव को स्वीकार किया था परन्तु अमल में नहीं लाया गया, इस पर मनमोहन सरकार को विपक्ष ने घेरा जिसमें भाजपा और आरएसएस के लोग मुख्य रूप से थे ,जिसमें सदन में जाति खत्म करने की मांग तक की गई। परन्तु इन सब के बाद भी वर्ष 2011में जातिगत जनगणना नहीं हुई और सदन में सर्वसम्मति द्वारा –‘ग्रामीण विकास मंत्रालय’ द्वारा एक सर्वे कराने का आदेश पारित किया गया जिसे ‘सोशियों इकोनाॅमिक कास्ट सेंसस सर्वे’ नाम दिया गया जिसके तहत लगभग ४०हजार 8 सौ करोड़ का बजट भी पारित किया गया किन्तु सर्वे अनुमानित ही रहा वर्ष 1931 के अनुसार ओबीसी की कुल आबादी 52 % हैं ।यही कारण हैं कि वर्ष 2021 की जनगणना चर्चा का विषय बनी हुई हैं ।
यदि वर्तमान सरकार की बात करें तो वर्ष 2018 की एक कमेंटी मीटिंग में केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि– ‘वर्ष 2021 की जनगणना जातिगत जनगणना होगी’ किन्तु हाल ही में केंद्रीय गृह राजमंत्री नित्यानंद राय ने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में दिए जबाव में कहा कि फिलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया हैं ।
अब सवाल यह हैं कि आखिर क्यों सरकारें जातिगत जनगणना से मुकर जाती हैं ? इस पर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जीबी पन्त सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के निर्देशक प्रोफेसर बद्रीनारायण जी का मानना हैं कि– “ अग्रेंजों की ओर से जनगणना लागू करने से पहले, जाति व्यवस्था लचीली और गतिशील थी लेकिन अंग्रेज जब जातिगत जनगणना लेकर आए तो सब कुछ रिकार्ड में दर्ज हो गया इसके बाद से जाति व्यवस्था जटिल हो गई ।”
यकीनन इस बात पर गौर करें तो कहा जा सकता हैं कि और आरक्षण चाहिए कही ये मांग बढ़ न जाए इस बात से सरकारें
डरती हैं क्या ? मान लीजिए इनका प्रतिशत बढ़कर 60 फीसदी हो जाय तो सम्भव हैं कि ओबीसी पार्टियां एकजुट होकर कहने लगे, ये आंकड़ें सही नहीं है, हालांकि इसमें ऊपर से नीचे होने की पूरी संभावना हैं मान लीजिए 52% से घटकर 40%, ही हुई तो, उत्तर भारत की राजनीति पर कैसा असर होगा ? इस पर प्रोफेसर बद्रीनारायण जी का कथन हैं कि–”अभी जो राजनीति होती हैं उसका कोई ठोस आधार नहीं हैं उसे चुनौती दी जा सकती हैं लेकिन एक बार जनगणना में दर्ज हो जाएगा तो सब कुछ ठोस रूप ले लेगा । ” मान्यता हैं कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी ,उसकी उतनी हिस्सेदारी ‘ अगर जातिगत जनसंख्या का एक बार निश्चित आंकड़ा प्राप्त हो जाय तो, उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगेगी…..तो कम जनसंख्या वालों का क्या होगा ? उनके बारें में कौन सोचेगा ? ओबीसी और दलितों में बहुत सी छोटी जातियां हैं उनका ध्यान कौन रखेगा ? बड़ी संख्या वाली जातियां यदि आकर मांग करने लगेगी कि 27%,के अंदर 5% हमें भी आरक्षण दो ,तो बाकियों का क्या होगा? ये जातिगत जनगणना का एक नकारात्मक पहलू हैं ।
लेकिन सकारात्मक पहलू यह है कि –‘इसमें लोगों के लिए नीतियां और योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती हैं ‘। अतः जातिगत जनगणना होना ही चाहिए। वर्ष 2021 की जनगणना पर नजर डालें तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश रोहणी जी की अध्यक्षता में आयोजित चार सदस्यीय आयोग का गठन किया गया संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत वर्ष 2017 में इसमें मुख्य बिंदु विचारार्थ रखें गए–
१–असमानता की जांच करना ।
२– आवश्यक तंत्र और मापदंडों का निर्धारण
३–उप–वर्गीकरण करना
४–मौजूदा त्रुटियों को समाप्त करना
५– ओबीसी में २७% आरक्षण को चार श्रेणियों में क्रमशः २,६,९ वा१०% में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा गया ।
साथ ही इसमें आने वाली चुनौतियों के समाधान की बात कही गई । किन्तु जातिगत जनगणना को 2011 के अनुसार ही रखा गया अलग से करने की बात नहीं की गई ।
इन तथ्यों पर विचार करें तो कहा जा सकता हैं कि जातिगत जनगणना एक जटिल प्रक्रिया हैं आखिर वे सब लोग मूर्ख थोड़े हैं जिन्होंने वर्ष 1931 के पश्चात् जातिगत जनगणना नहीं करवाई ? अब इसके साथ एक सवाल यह भी है कि- क्या जातिगत जनगणना के समर्थक आरक्षण के पक्षधर हैं ? यदि हाॅ॑ तो धर्म की राजनीति का क्या होगा ? यदि नहीं तो खास कर उत्तर– भारत का राजनीतिक समीकरण कब बदलेगा ? ऐसे कई सवालों के कटघरे में सरकार खड़ी हैं इसका भविष्य क्या होगा यह कह पाना अभी मुश्किल हैं । किन्तु सरकार ने 2021 की जनगणना में कुछ मूलभूत बदलाव किया है जैसे–
१–8 वीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में से 18भाषाओं और अंगेंजी में,जबकि 2011में जनगणना 16 भाषाओं में सम्पन्न हुई थी ।
2–लिंग श्रेणी के तहत ‘ अन्य ‘ के स्थान पर ‘थर्ड जेंडर’ को परिवर्तित किया गया हैं ।
3–पहली बार मोबाइल एप के माध्यम से डेटा एकत्र किया जाएगा ।
और यदि इस पर खर्च की बात करें तो सरकारी आंकड़े के अनुसार–2021 की पूरी जनगणना 9000करोड़ रुपए की लागत से पूरी होगी ।
साथ ही इस बार की जनगणना में कई तरह की चुनौतियों का सामना भी करना पड़ेगा जैसे– डाटा प्रबन्धन की सुरक्षा,भंडारण क्षमता,मूल्यांकन और बैकअप डाटा प्रबन्धन की सुरक्षा इत्यादि । यदि समाधान की बात करें तो इसके लिए सरकार को जन –जागरूकता अभियान का शुभारंभ करना चाहिए , साथ ही डेटा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए शामिल हुए कार्यकर्ताओं,अधिकारियों को उचित प्रशिक्षण का प्रावधान करना चाहिए । सरकार का ध्यान इन बातों पर भी होना चाहिए ।
हालांकि मैं जातिगत जनगणना की पक्षधर नहीं हूॅ॑ ,मेरा मानना हैं कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक अध्ययन के मुताबिक जनगणना की जानी चाहिए जिससे आरक्षण और जातिगत राजनीति को खत्म किया जा सकें और भारत की नई रूपरेखा तैयार की जा सकें जिससे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से सही लाभार्थी को लाभ प्राप्त हो सकें ।

— रेशमा त्रिपाठी

रेशमा त्रिपाठी

नाम– रेशमा त्रिपाठी जिला –प्रतापगढ़ ,उत्तर प्रदेश शिक्षा–बीएड,बीटीसी,टीईटी, हिन्दी भाषा साहित्य से जेआरएफ। रूचि– गीत ,कहानी,लेख का कार्य प्रकाशित कविताएं– राष्ट्रीय मासिक पत्रिका पत्रकार सुमन,सृजन सरिता त्रैमासिक पत्रिका,हिन्द चक्र मासिक पत्रिका, युवा गौरव समाचार पत्र, युग प्रवर्तकसमाचार पत्र, पालीवाल समाचार पत्र, अवधदूत साप्ताहिक समाचार पत्र आदि में लगातार कविताएं प्रकाशित हो रही हैं ।