कविता

किताबें कहना चाहती हैं

सच है किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
अपने मन के भाव बाँटना चाहती हैं,
अपने अंदर समेटे
आखिर कब तक बेचैनी से
बचायें खुद को,
बस अपनी बेचैनी से
खुद को बचाना चाहती हैं।
कितना विचित्र है कि हमसे
कहकर हमें ही देना चाहती हैं,
यथार्थ बोध हमको बताना चाहती हैं।
अपनी दुविधा मिटाने की चाह में
वो हमसे भले कहना चाहती हैं,
पर सच तो ये है कि किताबें
हमें सँवारना, सँभालना चाहती हैं,
बस! इसीलिए ही तो
किताबें हमसे कुछ कहना चाहती हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921