लघुकथा

जिम्मेदारी

जब से नई बहू घर में आई थी, गाहेबगाहे अलमारी से पैसे गायब होने लगे थे। रमा को अपनी नई बहू पर शक तो था लेकिन बिना सबूत के वह उसपर आक्षेप भी कैसे लगाती ?  वह चाहकर भी अपनी बहू से कुछ कह नहीं पा रही थी।  महीने के आखिर में उसे घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता, बचत की बात तो बहुत दूर थी।
कई बार बहू को फिजूलखर्ची के लिए टोक भी चुकी थी और बेटे से भी कह चुकी थी लेकिन नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात ‘!
रमा ने काफी सोच समझकर एक दिन बहू को बुलाया और उसे समझाते हुए कहा, “बहू ! नया जमाना आ गया है। अब खरीददारी के तौर तरीके बदल गए हैं जो मेरे लिए तो टेढ़ी खीर समान ही हैं, सो अब आज से तुम ही संभालो पूरे घर की जिम्मेदारी। मेरा क्या है, मुझे जो भी मिलेगा खा लूँगी और राम राम कर लूँगी!”

अब अलमारी से पैसों की चोरी और बहू की फिजूलखर्ची भी रुक गई थी।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।