उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 16)

इस प्रकार कणिक ने महाराज धृतराष्ट्र को राजनीति की मुख्य बातें समझायीं और शत्रुओं को वश में करने के उपाय बताये। परन्तु यह सब तो धृतराष्ट्र पहले से ही जानते थे। उनको इससे संतुष्टि नहीं हुई, क्योंकि जिस उद्देश्य से उन्होंने कणिक को परामर्श हेतु बुलाया था, वह उद्देश्य पूरा होता नहीं लग रहा था। इसलिए उन्हें स्पष्ट शब्दों में पूछना पड़ा- ”कणिक! मुझसे पांडवों का वैभव और लोकप्रियता सहन नहीं होती। उनकी उन्नति और ख्याति से मुझे बहुत चिन्ता होती है। तुम मुझे यह बताओ कि मुझे पांडवों के साथ संधि कर लेनी चाहिए या झगड़ा करना चाहिए।“

धृतराष्ट्र ने अपने मन की बात कणिक के सामने इसलिए प्रकट कर दी थी कि कणिक उनका विश्वस्त मंत्री था और उसके द्वारा कोई बात अन्यत्र प्रकट होने की संभावना नहीं थी।

कणिक को भी धृतराष्ट्र के मुख से यह सुनकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि वे पांडवों को अपने शत्रु के रूप में देखते थे और किसी भी तरह उनसे छुटकारा पाना चाहते थे। उसने अपना कर्तव्य जानकर धृतराष्ट्र को यह परामर्श दिया- ”महाराज! राजनीतिशास्त्र के अनुसार यदि पुत्र, मित्र, भाई, पिता या गुरु कोई भी राजा का शत्रु बन जाये, तो राजा को उसे मार डालना चाहिए। इसके लिए कोई भी उपाय काम में लाया जा सकता है, जैसे- धोखा देना, झूठी शपथ खाना, धन देना या विष देना। यदि गुरु भी शत्रुता कर रहा हो, तो उसे भी दण्ड देना चाहिए।“

महाराज धृतराष्ट्र पूरे ध्यान से कणिक की बातें सुन रहे थे और उस पर सहमति में सिर भी हिला रहे थे। कणिक आगे बोला- ”महाराज! निकटस्थ शत्रु के प्रति यह सावधानी रखनी चाहिए कि उसके सामने हमारे मनोभाव प्रकट न हों। हमें अपना क्रोध नियंत्रित करना चाहिए और उसके सामने यथासम्भव मीठा बोलकर उसे भ्रम में रखना चाहिए। फिर उचित समय आने पर प्रहार करना चाहिए। यहाँ तक कि शत्रु को मारकर भी उसके प्रति शोक प्रकट करें, रोयें और आँसू बहायें।

”महाराज! राजा को प्रहार का उचित समय आने तक शत्रु को समझा-बुझाकर उसमें अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करना चाहिए, ताकि वह राजा की ओर से असावधान हो जाए। राजा को धर्म के आचरण का ढोंग करते रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से घोर अपराध भी ढक जाता है। राजा जिस शत्रु को शीघ्र ही मार डालना चाहता हो, उसके घर में आग लगा देनी चाहिए।“

दृष्टिहीन महाराज धृतराष्ट्र बड़े मनोयोग से कणिक की बातों को सुन रहे थे। आग लगाने वाली बात सुनकर उनके मन में आशा की एक किरण चमकी, लेकिन इस बात को उन्होंने प्रकट नहीं होने दिया। वे अपने मनोभावों को गुप्त रखने में बहुत सिद्धहस्त थे और अति निकट का व्यक्ति भी उनके भावों को ठीक-ठीक नहीं जान सकता था।

कणिक आगे कहने लगा- ”महाराज! शत्रु को वश में करने के लिए उसके बारे में राजा को पूरी जानकारी होना आवश्यक है। इसके लिए अपने और शत्रु के राज्य में भी गुप्तचरों की नियुक्ति करनी चाहिए। ये गुप्तचर साधारण नागरिकों के अलावा पाखण्ड वेषधारी साधु-सन्यासी भी हो सकते हैं। राजा को ऐसे भीड़भाड़ वाले स्थानों पर भी गुप्तचर नियुक्त करने चाहिए, ताकि जनता के मनोभावों का ज्ञान उसको होता रहे।

”राजा को ऐसे वृक्ष की तरह होना चाहिए, जिसमें फूल तो हों, लेकिन फल न हों, अर्थात् जनता को उससे आशाएँ होनी चाहिए, पर वे आशाएँ कभी पूरी तरह सफल न हों, इसकी भी सावधानी रखनी चाहिए। राजा को अपने शत्रु की निर्बलताओं का पता लगाना चाहिए। जब शत्रु और उसकी सेना निर्बल हो उसी समय प्रहार करना चाहिए।

”महाराज! राजा को अपने मनोभावों को पूरी तरह गुप्त रखना चाहिए। उसके मित्र और शत्रु किसी को भी यह पता नहीं चलना चाहिए कि राजा कब क्या करना चाहता है। कार्य प्रारम्भ हो जाने या सम्पन्न हो जाने पर ही सबको उसकी जानकारी होनी चाहिए।“

धृतराष्ट्र का वह उद्देश्य पूरा हो गया था, जिसके लिए उन्होंने कणिक को बुलाया था। इसलिए वार्ता समाप्त करने के लिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में पूछ लिया- ”कणिक! पांडुपुत्रों के बारे में मुझे और क्या करना चाहिए? यह बताओ।“

कणिक ने उत्तर दिया- ”महाराज पांडुपुत्र बहुत शक्तिशाली हैं। इसलिए आपको कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए कि आप स्वयं संकट में पड़ जायें। आपको उनसे अपनी रक्षा करनी चाहिए और नीति से काम लेना चाहिए, ताकि बाद में आपको पछताना न पड़े।“

धृतराष्ट्र ने सहमति में सिर हिलाया और कहा- ”ठीक है, कणिक! तुमने मुझे बहुत हितकारी सलाह दी है। मैं उस पर विचार करूँगा।“

यह सुनकर मंत्री कणिक महाराज की आज्ञा लेकर और प्रणाम करके चला गया। धृतराष्ट्र उसकी सलाहों पर विचार करने लगे।

— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com