कविता

जिंदगी जरा रुक

आज सोचा जिंदगी के बारे में
जाने क्या जानती हूँ
इसके बारे में।
दौड़ते-भागते रह गये
कभी न सोच पाये तेरे बारे में।
बचपना था खेलकूद थे
कुछ सपने थे तेरे  बारे में।
सोचा बहुत था करना बहुत था
तेरे साथ तेरे बारे में।
किया बहुत पाया बहुत
तेरे साथ तेरे साये में।
ज्यों ज्यों मैं पली बढ़ी
तू भी चलती रही मेरे
साथ मेरे साये में।
हौसलों की उडान थी
मैं पग भरती रही आसमानों में।
चाहा था जो मिल भी गया
पर साथ तेरा पल पल
छिनता गया।
सहसा एक एहसास आया
आज सोचा जो तेरे बारे में।
तुझसे बिछडने का मलाल आया।
जब हम रहे साथ नहीं
जान पाये तेरे बारे में।
अनकही अनसुनी कहानी हुई तू
नजदीक होकर भी तूने
बताया नहीं अपने बारे में।
सजल हो उठे नयन
छलकने लगे कोर
विह्वल हो जज्बात 
मचाने लगे शोर।
तू न होगी तो क्या होगा
सपनों का वादों का इरादों का तेरे।
रूक जाना तू जाना नही
साथ रहना तू फर्ज
निभाने में कर्ज मिटाने में।
नहीं लिया अहसान किसी का
आभार है सब खून पसीने का।
मुस्कुराती थी मुस्कुराती हूँ
मुस्कराते ही करूंगी
अदा फ़र्ज सभी का।
बस तू ठहरना रूठना नहीं
जब तक न कर दूं अदा
कर्ज सभी का।
हंसते हुए चल पडेंगें दोनो
जब हो जायेगा मुकंबल
अदा फ़र्ज सभी का।

— वंदना यादव

वंदना यादव

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका,चित्रकूट-उत्तर प्रदेश