लघुकथा

अपंग

रमा आँगन में कपड़े धोते-धोते बोली – ” प्रिया बेटा ज़रा छोटी बहन को देख ले बहुत देर हो गई उसने कुछ खाया भी नहीं ! बेचारी न खुद उठकर ले सकती है न कोई काम कर सकती है। ईश्वर ने क्या लीला रची मेरी बेटी के साथ उम्र पंद्रह की होने को आई लेकिन चल-फिर नहीं सकती न ही अच्छे से साफ बोलती है। न जाने हम कब तक ज़िंदा रहेंगे और बाद में कौन इसकी देखभाल करेगा !”

“प्रिया के भी हाथ पीले करने हैं समय से।”

यह सब सुनकर प्रिया बोली माँ – ” मैं तो अभी और पढ़ूँगी–लिखूँगी, अपने पैरों पर खड़ी हौऊंगी। ब्याह-व्याह तो अभी न करना मुझे। और तू लाड़ो की इतनी चिंता न कर, हम सब उसकी बात इशारों से समझ जाते हैं। वह हम सबके साथ हँसती है, थोड़ा-थोड़ा बात करती है, मैं उसकी बात सब समझती हूँ, और तुम ज़्यादा मत सोचो मैं खूब अच्छा कमाऊँगी और इसको सिर-आँखों पर रखूंगी हाँ ! देखना तुम।”

“अरे बेटा तेरा ब्याह होगा, कौन तेरी बहन को झेलेगा तू इस अपंग को कैसे सारी ज़िंदगी संभालेगी ! इसकी वजह से तू अपनी ज़िंदगी तबाह करेगी !” – रमा गुस्से के स्वर में बोली।

“माँ इतना मत सोच, तू हमारे बीच भेदभाव कर रही है, ये बिलकुल गलत बात है। मैं कोई लड़का नहीं जो शादी के बाद मेरी बीवी इसकी सेवा करे और एहसान जताए। मैं खूब पैसा कमाकर उसका ध्यान रख सकती हूँ।”

“कोई भी इंसान अपंग शरीर से नहीं, घटिया सोच से अपंग बनता है।”

“आजकल देखो न लोगों को माँ-बाप को चार दिन भी साथ नहीं रखते वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं, चलते-फिरते की सेवा नहीं कर सकते जिनसे उनका अपना अस्तित्व है !”

“अपने हर छोटे-बड़े काम के लिए नौकरों और रोबोट पर निर्भर है। चौबीसों घंटे हर काम बैठे-बैठे मोबाइल- लेप्टोप का बटन दबाकर करता है। ज़रा- ज़रा सी समस्या को बड़ी परेशानी समझता है। बच्चों को पूरी तरह तकनीकी दुनिया में डुबाकर प्रकृति और जीवन के वास्तविक रस से बिसार चुका है। अगर एक पल के लिए मोबाइल या कोई भी ज़रूरत की चीज़ आँखों के समक्ष नहीं पता तो, बौरा जाता है, खिन्नाया-सा फिरता है !”

“हम तो कितनी शांत और कितनी सरल ज़िंदगी जी रहे हैं। जो भी हो, जैसा भी हो आपस में बात भी करते हैं, हँसते है, बोलते हैं, लड़ते हैं, खुली हवा में मुसकुराते हैं। पर उनका क्या जो आने वाले कल में ज़ोमेटो,स्वीगी एप से खाना मंगाने के साथ-साथ अब साथ बैठकर हंसने के लिए बात करने के लिए ‘कुछ लोग’ भी ऑर्डर करेंगे।”

“बेजान वस्तुओं को पकड़ एक ही घर के चार लोग चार कमरों में बंटे हुए हैं और सोच से वाकई अपंग हो गए हैं।”

“मेरी लाड़ो में तो फिर भी जान है माँ ! उसका मुसकुराता चेहरा मुझे बहुत सुकून देता है।”

रमा के चेहरे पर एक निश्चिंत मुस्कान बिखर गई उसने एक अटूट विश्वास आँखों में भर प्रिया की ओर देखा और दोनों के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी।

— भावना अरोरा ‘मिलन’

भावना अरोड़ा ‘मिलन’

अध्यापिका,लेखिका एवं विचारक निवास- कालकाजी, नई दिल्ली प्रकाशन - * १७ साँझा संग्रह (विविध समाज सुधारक विषय ) * १ एकल पुस्तक काव्य संग्रह ( रोशनी ) २ लघुकथा संग्रह (प्रकाशनाधीन ) भारत के दिल्ली, एम॰पी,॰ उ॰प्र०,पश्चिम बंगाल, आदि कई राज्यों से समाचार पत्रों एवं मेगजिन में समसामयिक लेखों का प्रकाशन जारी ।