कविता

स्वप्न छन – छन गिर गए

कनखियों में रूप भरकर
इश्क के आगे खड़ा था
नैनों ने बंद की खिड़कियां
कदमों में आसमा पड़ा था।
प्रतिध्वनि में नाम उसके
सुने मन में गूंज रहे थे
वो किरण अनुराग की थी
और सांझ बनकर मैं ढ़ला था।
मन प्रमुदित हो रहे थे
धड़कनों में राग था
होश और नशे के बीच
जंग जैसा क्यों छिड़ा था?
अनंत रश्मि ओं के बीच से
रात अविरल बढ़ रही थी
दूर क्षितिज ले लालिमा
सुखद स्वांस सा भर रहा था।
कर रहा था शोर अर्णव
दिव्य स्वर से छा रहे थे
तृप्ति का साक्षी बना वो
अंजुली में जो दृग जल पड़ा था।
जागने सोने के मध्य
स्वप्न छन – छन गिर गए
आखिरी हिस्सा समेटे
उन्माद राग से लड़ा था।

— रजनी उपाध्याय

रजनी उपाध्याय

शांति नगर, अनूपपुर-मध्य प्रदेश