सामाजिक

बड़ा प्रश्न

नौ दिनों तक आदिशक्ति के नौ स्वरुपों/ देवियों की पूजा/कन्या पूजन आदि और फिर विजय दशमी पर रावण ,कुँभकरण, मेघनाद के पुतलों का दहन हर वर्ष होता आ रहा है।
परंतु चिंतन का विषय है कि बहन, बेटियों की सुरक्षा, संरक्षा चिंतित करने को बाध्य करती ही रहती है और तो और इन दिनों में भी महिलाओं के साथ असंवेदनशील और ओछी हरकतें, अमानवीय व्यवहार अपवाद स्वरूप थोड़ा घटते जरूर हैं,परंतु बंद नहीं होते। इसके लिए हम सब दोषी हैं।
कुछ ऐसा ही रावण वध को लेकर भी कहा जा सकता है कि हम रावण को जलाते हैं, साल दर साल जलाते हैं, परंतु हमें खुद पर शर्म नहीं आती कि क्यों नहीं हम अपने ही रावणत्व का बध करते/जलाते नहीं हैं।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि ऐसे पूजन, भजन, कीर्तन, रीतियों, परंपराओं का क्या औचित्य है? वाह्य आड़ंबरों की आड़ में हम आखिर साबित क्या करना चाहते हैं। जिसकी गहराई में झांकना, देखना और खुद पर लागू करने की जहमत तक उठाना हमें मंजूर नहीं है।
शायद इसीलिए महज औपचारिकताओं के जाल में हमारे खुद के फँसते जाने के कारण हमारे तीज, त्यौहार, परंपराएं, मान्यताएं फीकी होती जा रही हैं, अपने उद्देश्य खोती जा रही हैं।जिसका खामियाजा हमें ,आपको, समाज, राष्ट्र ही नहीं हमारे भावों के साथ अगली पीढ़ी दर पीढ़ी को भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
बड़ा प्रश्न है कि हम क्या क्या खो रहे हैं और कहां जा रहे हैं?

*सुधीर श्रीवास्तव

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