कविता

सारंगी वाला

प्रारंभ से ही रचा जाता रहा है व्यूह
रोने और चुप कराने वालों के बीच।
आ ही जाता वह बूढ़ा जोगी
हर तीसरे-चौथे दिन
कंधे पर कपड़े की लम्बी झोलीनुमा गठरी
और खपच्चियों से बना
बड़ा-सा बाजा लिये।
घुटने तक के ढ़ीले कुरते
और गन्दी धोती वाला बुड्ढा
गांव के बच्चों के लिये
बना हुआ था पनौती
जिसके कहीं दूर चले जाने
या अंधे हो जाने की
हम किया करते थे दुआएं!
जब दूर से ही सारंगी पर
आने लगती
बच्चों के रोने की
दर्दनाक धुनें
भरथरी-गोपीचंद वाले
गुदरिया ए माई जैसे
डरावने निर्गुण गीत
कल्पना कर सिहर जाते हम
गठरी में
गायब हुए बच्चों की तस्वीर
माँ की साड़ी से लिपटे हम
मिचमिचा कर बंद करते आँखें
जब तक बंद न हो जाती
सारंगी की डरावनी धुन।
समझ नहीं आता ये बूढ़ा
बार-बार आता क्यूं है
और बच्चों से इतना प्यार करनेवाली माँएं
बुड्ढे से बतियाती क्यूं हैं
हम निष्कर्ष निकालते
शायद इसलिये
कि बुड्ढा चुन-चुन कर ले जाता है
अपने बड़े से झोले में
जिद्दी और पिलपिले बच्चे
उस दिन दुवारिक चाचा भी मुनिया से
कुछ यही तो कह रहे थे
डर रहता
कि झोले में कसकर ले न जाए बुड्ढा
हमें भी कहीं
जोगी का क्या भरोसा
कोई घर तो है नहीं
कैसे ढूंढ पाएगी अम्मा
इस डर ने हमें नियंत्रित  रखा
उसकी अनुपस्थिति में भी।
खैर!
सुनी गई दुआ
जोगी चला गया
हमेशा के लिए गाँव से
टांगकर पुराने पीपल में
अपना रहस्यमयी झोला
असली दुख तो तब हुआ
जब पता चला
झोले में कोई बच्चा नहीं
भरे पड़े हैं
टॉफियां और खिलौने
जिसे देकर चुप कराता था बुड्ढा
रोते और पिलपिले बच्चे!

— सुमिता, नालंदा

सुमिता, नालंदा

बिहार