धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मात्र मूर्ति उपासना से ईश्वर प्रसन्न नहीं होते

आज के युग में प्रायः यह देखा जा रहा है, कि पढ़े-लिखे परिवारों में भी धार्मिक कर्मकांडों जैसे -मूर्ति पूजा , व्रत,साधना, जागरण आदि पर विशेष बल दिया जा रहा है।चाहे व्यक्ति के अंतर्मन में कितनी भी मलिनता हो किंतु वह  मनके की माला हाथ में थाम कर स्वयं को संत की भाँति प्रदर्शित करना चाहता है। धर्म अंतःकरण का विषय है, यह आस्था की पराकाष्ठा है, जहाँ हम कण- कण में ईश्वर के दर्शन कर लेते हैं ।
जब कण-कण में भगवान हैं ,तो फिर इंसानों में हम भगवान को क्यों नहीं देखते हैं? क्यों हम झूठी वर्जनाओं से बाहर निकलना नहीं चाहते हैं? कब तक आखिर इसी तरह धर्मांधता के कारण सच्चे धर्म से मुख मोड़ते रहेंगे? और अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े रहेंगे ?धर्म कभी भी दूध को गंगा में विसर्जित करने के लिए नहीं कहता है।अक्सर सुनने में आया है कि संभ्रांत परिवार के व्यक्ति विशेष ने एक केन भरकर दूध जल में प्रवाहित किया है, मंदिर में अर्पित किया। यह सब मात्र पाखण्डपन है। यदि हम ध्यानपूर्वक सोंचें तो वह दूध किसी की क्षुधा को शांत करने का जरिया बन सकता था। प्रायः लोग मंदिर और दरगाह में चादर चढ़ा कर पुण्य प्राप्त करना चाहते हैं। ईश्वर को चादर की आवश्यकता नहीं है, किंतु हमारे आसपास बहुत से ऐसे दरिद्र व्यक्ति हैं, जिनके पास सर्दी से बचाव के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं है। हमें दान ऐसी जगह करना चाहिए जहाँ उसकी आवश्यकता हो ।ईश्वर को कपड़ों की कतई जरूरत नहीं है, हमें  कपड़े जरूरतमंदों के लिए देने चाहिए, ताकि सर्दी की ठिठुरन से उन्हें निजात मिल सके.. संवेदना की गर्मी उनके तन को भी प्राप्त हो सके..
 मंदिर में बैठकर प्रवचन सुन लेने मात्र से ही हमें पुण्य प्राप्त नहीं होगा, अपितु हमें आत्मा की आवाज को सुनकर दीन दुखियों के कष्टों को हरना होगा ।दरिद्रता के दंश से पीड़ित गरीबों के विषय में विचार करना होगा।
अंत में चंद पंक्तियाँ पूजा जैसे गहन शब्द का अर्थ बताने के लिए कहना चाहूँगी–
दीन-हीन की सेवा करना ही पूजा कहलाता है,
वो महान होता है, जो गिरे हुए को उठाता है।
प्रतिदिन मंदिर जाने से ही पूजा नहीं होती है,
भगवान दुखी होते हैं, जब भी  पीर कहीं रोती है,
जो आँसू पोंछे दुखियों के वही सच्चा भक्त कहाता है,
वही तो मुखमंडल पर प्यारी सी मुस्कान लाता है,
दीन-हीन की सेवा करना ही पूजा कहलाता है…
भगवान नहीं बसते मंदिर,मस्जिद और गुरुद्वारे में,
भगवान तो रहते हैं पावन कर्मों के गृह-द्वारे में,
सच्ची भक्ति है उसकी जो गिरे हुए को उठाता है,
मानव के प्रति मानवता का प्रतिदिन धर्म निभाता है।
दीन-हीन की सेवा करना ही पूजा कहलाता है…
— प्रीति चौधरी “मनोरमा”

प्रीति चौधरी "मनोरमा"

पिता का नाम श्री सतेन्द्र सिंह माता का नाम श्रीमती चंद्रमुखी देवी जन्म स्थान ग्राम राजपुर,पोस्ट मलकपुर (बुलन्दशहर) पति का नाम श्री सुभाष सिंह डबास स्थायी पता श्रीमती प्रीति चौधरीW/o श्री सुभाष सिंह डबास ग्राम+पोस्ट लाड़पुर तहसील स्याना बुलंदशहर(यू०पी०) पिन कोड 203402 फ़ोन नंबर 9719063393 जन्मतिथि 05/08/1985 शिक्षा बी०ए०,एम०ए०,बी०एड०, विशिष्ट बी०टी०सी० व्यवसाय अध्यापन प्रकाशित रचनाओं की संख्या लगभग 66 प्रकाशित पुस्तकों की संख्या आखर कुँज(साझा संग्रह), स्वरांजलि(साझा संग्रह), रत्नावली(साझा संग्रह) प्रकाशनाधीन साझा संग्रह मैं निःशब्द हूँ (साझा संग्रह) हे भारत भूमि(साझा संग्रह) उन्मुक्त परिंदे (साझा संग्रह), नवकिरण (साझा संग्रह) काव्य सृष्टि (साझा संग्रह) शब्दों के पथिक (साझा संग्रह) सम्मान का विवरण साहित्य शिरोमणि सम्मान, स्वामी विवेकानंद साहित्य सम्मान, माँ वीणापाणि साहित्य सम्मान आदि।

One thought on “मात्र मूर्ति उपासना से ईश्वर प्रसन्न नहीं होते

  • *गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    वो महान होता है, जो गिरे हुए को उठाता है।
    प्रतिदिन मंदिर जाने से ही पूजा नहीं होती है,
    भगवान दुखी होते हैं, जब भी पीर कहीं रोती है,
    जो आँसू पोंछे दुखियों के वही सच्चा भक्त कहाता है,
    वही तो मुखमंडल पर प्यारी सी मुस्कान लाता है,
    दीन-हीन की सेवा करना ही पूजा कहलाता है…
    भगवान नहीं बसते मंदिर,मस्जिद और गुरुद्वारे में,
    भगवान तो रहते हैं पावन कर्मों के गृह-द्वारे में,
    सच्ची भक्ति है उसकी जो गिरे हुए को उठाता है,
    मानव के प्रति मानवता का प्रतिदिन धर्म निभाता है।
    दीन-हीन की सेवा करना ही पूजा कहलाता है… absolutely agree with this .

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