गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

हर एक शख्स ही तनहा दिखाई देता है ।।
कभी डरा कभी सहमा दिखाई देता है ।।
यही खयाल ही महका दिखाई देता है ।।
हर एक शख्स ही अपना दिखाई देता है ।।
बहुत दिनों से जो रस्ता दिखा रहा था मुझे..
वो आज राह से भटका दिखाई देता है ।।
जरूर आज कहीं आसपास ही हो तुम..
हर एक गुञ्चा चटखता दिखाई देता है ।।
बिछुड़ के तुझसे मुहब्बत हुई हर एक शै से..
हर एक सू तेरा चेहरा दिखाई देता है ।।
बदल गए हैं क्या हालात चार दिन के लिए..
अब इस जमाने में क्या क्या दिखाई देता है ।।
जदीद दौर का हर शख्स अपनी मस्ती में..
कदम कदम पे ही बहका दिखाई देता है ।।
तेरी तलाश में हमदम मुझे बजूद अपना..
हर एक सिम्त बिखरता दिखाई देता है ।।
नजर से दूर है लेकिन नितान्त जाने क्यों..
वो मुझको साथ ही चलता दिखाई देता है ।।
— समीर द्विवेदी नितान्त

समीर द्विवेदी नितान्त

कन्नौज, उत्तर प्रदेश