धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

साधना

“साधना” महज एक प्रक्रिया है।योगी, सन्यासी, संत, महात्मा, साधक और जन सामान्य के लिए साधना का अपना महत्व है।
मगर लक्ष्य प्राप्ति ही सभी का एक उद्देश्य है। तात्पर्य सिर्फ़ इतना भर है कि जब हम कोई निश्चय करते हैं या निर्णय करते हैं कि हमें यह करना है, यह लक्ष्य पाना ही है अथवा अमुक उद्देश्य में सफल होना है।
तब हम जिस प्रक्रिया का अनुपालन करते हैं,वही साधना है।साधना की सफलता के पीछे हमारा, मन, वचन , कर्म, दृढता और ईमानदारी का अहम रोल है। क्योंकि कोई भी लक्ष्य तब तक सफल नहीं हो सकता है, जब तक सतत प्रयास न किया जाय, सतत दृढ़ता, अनुशासन से न किया जाय अर्थात लक्ष्य साध्य के लिए साधना अर्थात परिश्रम न किया जाय। जिस तरह साधक सफलता के लिए समर्पित होकर साधना करता और अपना अभीष्ट पा लेता है, ठीक वैसे ही हर किसी को अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु साधना में लीन होने की आवश्यकता है। तभी सफलता मिल सकती है।साधना का तात्पर्य यह नहीं है कि हम बैठकर सिर्फ़ पूजा पाठ ,भजन, कीर्तन ही करते रहें।
अपने लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में हमारा किया जाने वाला प्रयास ही साधना है।मगर सबके उद्देश्य अलग अलग होते हैं तो साधना की प्रक्रिया भी स्वाभाविक रूप से अलग ही होगी।
साध+ना=साधना अर्थात किसी लक्ष्य को साधने की समूची प्रक्रिया ही असली साधना है।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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