कविता

सोंधी सी महक

तप रही कढाई में बालू,
भट्टी जलने का क्रम चालू।
चारों दिशि फैली गमक बहुत,
सोधीं -सोंधी सी महक बहुत।
लगती है मन को बहुत भली,
भुन रही कहाँ ये मूँगफली?
हमको देना, हमको देना,
है शोर मचा दुकानों पर।
जाड़े में भाती मूँगफली,
है नजर नहीं मिष्टाननों पर।
बिकती है देखो गली-गली,
है कहाँ भुन रही मूँगफली?
ये प्यार बाँटने वाली है,
ये समय काटने वाली है।
ये तो जाड़े की मेवा है,
कितने तालों की ताली है।
मन कलिका रहती खिली-खिली,
भुन रही कहाँ ये मूँगफली?
खाते बूढ़ें खाती बुढ़िया,
करते पसंद गुड्डे-गुडिया।
दे रहे मसाले की पुडिया,
बन जाता स्वाद और बढ़िया।
खाते हैं शंकर और अली,
कहाँ भुन रही ये  मूँगफली?
— डॉ. प्रवीणा दीक्षित

डॉ. प्रवीणा दीक्षित

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, जनपद-कासगंज, उत्तर-प्रदेश