यात्रा वृत्तान्त

मेरी जापान यात्रा – 7

अगली सुबह हमें बुलेट ट्रैन से यात्रा करनी है।  यह सिटिंग  कोच होगी सोंचकर अपना सामान कम किया। एक बड़ा सूटकेस होटल के लाकर में रखवा दिया। सात दिन की तफरी के बाद हमें यहीं से वापिस इंग्लैंड जाना होगा।  बहुत सुबह निकलना है।  टोकियो से  हिरोशिमा  की दूरी ८१२ किलोमीटर है, जिसे सामान्य रेलगाड़ी से १०- ११घंटे में तय किया जाता है मगर बुलेट ट्रेन केवल साढ़े तीन घंटे में पहुंचा देगी।  यह हमारे प्लान का सबसे दूरस्थ पड़ाव है मगर वापसी में हम एक एक करके जापान के छह प्रमुख शहरों पर रुकते हुई टोकियो पहुँच जाएंगे।
          पतिदेव बहुत सावधानी से समय का ध्यान रखते हुए मुझको निर्देश देते जा रहे हैं।  बुलेट ट्रेन का प्लैटफॉर्म  बेहद आधुनिक एवं सुसज्जित है।  प्लैटफॉर्म की कगार पर जो मार्किंग की गयी है वह यात्री को कोई गलती करने ही नहीं देती।  हर कोच का द्वार जहां खुलेगा उस क्षेत्र को  एक लोहे के जंगले  से दोनों ओर सुरक्षित किया गया है  .यात्री उसी के पीछे क्यू लगाकर शांत भाव से खड़े हैं।  द्वार के पास जाने के लिए हमारे आगे दो परिचारिकाएं खड़ी हैं।  इनके कपडे हलके हलके रंगों के हैं और इनके हाथ में रबड़ के दस्ताने भी इनके कपड़ों के मैचिंग के हैं।  वैसे ही  जूते मोज़े ,सर की टोपी आदि भी। दोनों के हाथ में एक एक बाल्टी है उसी रंग की।    हमारी कोच का नंबर ज़मीन पर लिखा हुआ है।  हमारे टिकट पर भी उसी रंग का स्ट्राइप है।  अतः हमको अपनी जगह ढूंढने में दिक्कत नहीं हुई।  फिर भी हड़बड़ाहट तो थी नए सिस्टम को समझने में समय लगता है।  पर प्लेटफार्म पर बेहद शालीन ढंग से लोग स्थिति को संभाल रहे थे।  परिचारिकाएं एकदम प्लास्टिक की जापानी गुड़ियों के जैसी ,चुप -चाप खड़ी थीं।
ट्रेन आई तो कोई नहीं हिला।  उतरनेवाले यात्री दाहिनी ओर की बाड़ के खुले दरवाज़े से एक एक करके पंक्तिबद्ध होकर बाहर  जाने वाले रस्ते पर निकल गए।  तभी लोहे की बाड़  का अगला भाग खुला तो दोनों ओर की परिचारिकाएं मशीनी फुर्ती से ऑटोमैटिक दरवाज़े में दाखिल हो गईं। बाकी जनता टस से मस न हुई।उन दोनों के सधे हाथ झटपट सफाई का काम करते चले। एक लड़की पुराने सिरहाने एक बोरी में डालती ,सीटों पर बिछे बैक कवर भी अलग प्लास्टिक के बैग में डालती ,ब्रश से झाड़ती और नए बिछा देती। दूसरी फर्श पर गिरा हुआ कचरा आदि मशीन से उठाती। डस्टबिन खाली करती और नए अखबार रखती जाती।
ठीक दो मिनट के बाद फिर दरवाज़ा खुला और वह दोनों बाहर आ गईं।   तब यात्री अंदर चढ़े और टिकट पर लिखे नंबर पढ़कर अपनी जगह बैठ गए।  सबकुछ पहले से तय है।  केवल चार मिनट में यह सारा कार्यक्रम पूरा हो गया।  सामने चल रहे इनफार्मेशन बोर्ड पर जो इबारत आ जा रही थी उसी पर सबका ध्यान केंद्रित था।  बिना किसी हॉर्न या हूटर के, बताये समय पर दरवाज़े बंद हो गए और लो जी गाड़ी चल पडी।
        इतनी त्वरा ,और तत्परता। इतना मनोयोग से काम करने की शैली विस्मयकारी थी।
        पति देव बहुत गंभीर मुद्रा में विचारों में  डूबे हुए हैं  . मैं जरा भी नहीं बोलती।  मुझे पता है कि जनाब को क्या अंदर से मथ रहा है।
सं १९३३ /३४ में लाहौर में उनके दादा जी ने एक कपड़ों की दूकान खोली थी।  अंग्रेजों का राज था। सारा सामान इंग्लैंड से आता था। मगर रेडीमेड कपड़ा और खिलौने एवं रोज मर्रा की चीज़ें जापान की बेहतर मानी जातीं थीं।  अतः उन्होंने अपने दूसरे पुत्र को जापान से माल लाने  के लिए भेज दिया।  तब उसकी उम्र केवल बीस वर्ष की थी और उनकी शादी एक सोलह वर्ष की लड़की से हो गयी थी।  पहले छह बरस सब ठीक चलता रहा।  हर  चार महीने के अंतराल पर वह घर आ जाते थे।  एक बेटा भी हो गया  जो मेरे पति हैं।  मगर सन ३९ में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया।  शुरू शुरू में आम जनता ने उसकी विभीषिका को नहीं समझा। मगर धीरे धीरे अंतराष्ट्रीय तनाव अधिक भयावह हो गया।  संभवतः इसी काल में मेरे श्वसुर जी  सुभाष चंद्र बोस की आर्मी में शामिल  हो गए।  उनके अपने शब्दों में ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि जापान बोस को मित्रता की नज़र से देखता था जबकि और भारतीय अंग्रेजों की प्रजा थे।  अपनी सुरक्षा  लिए ऐसा करना पड़ा।  मगर जापान से बोरिया बिस्तरा उठाने में उनको अनेक पापड बेलने पड़े।  लाहौर से संपर्क टूट गया था।  न कोई खत ना खबर।  मेरी सासु माँ को पंजाब के विषाक्त वातावरण में अनेकों उपालम्भ  , व्यंग आदि सहने पड़े।  और इन सबका गहरा असर मेरे पति की मानसिकता पर पड़ा।
सं १९४५ आ गया। युद्ध समाप्ति पर था। अफरा तफरी मची हुई थी।  अपना सभी सामान ,घर बार अदि नौकरों को देकर मेरे श्वसुर हिरोशिमा आ गए। उस दिन वहां से एक जहाज शायद शंघाई की तरफ जा रहा था। उसी में यदि वह निकल जाते तो आगे रास्ता निकल ही आता।  मगर जब वह हिरोशिमा पहुंचे तो पता चला कि यह यात्रा स्थगित कर दी गयी थी। किसी ने सुझाया कि कोबे चले जाओ शायद वहां से कोई जुगाड़ बन जाए।  अतः वह सुबह छह बजे की ट्रेन लेकर वापिस कोबे चले गए।  उसी दिन दोपहर में एक बजे अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर बम मार दिया।  इसे छद्म भाषा में ” दी लिटिल बॉय ” नाम दिया गया।
             जो भी हुआ ,हमारे श्वसुर जी उस दिन बच गए।  जापान तो बर्बाद हो गया था।  नेता जी सुभाषचंद्र बोस अपनी आर्मी के संग वहां से निकल गए। उनका गंतव्य बर्मा था । सारी  आर्मी स्थल मार्ग से भारत की ओर कूच  कर गयी।  साधन ख़तम हो गए। भूखे प्यासे जंगलों में भटकते यह लोग भारत की ओर जा रहे थे मगर रास्ते में ही धोखे से नेता जी का अपहरण हो गया।  उनकी कहानी वहीँ विलुप्त हो गयी।  बाकी  सैनिक लटकते ,पटकते बर्मा पहुंचे। आधे से अधिक संग्रहणी से रस्ते में ही मर गए थे। कुछ राह भटक कर दलदल में फंस कर मरे। कुछ मलेरिया से , कुछ भूख प्यास से।  दक्षिणी चीन के हिमालयी घने जंगलों में राह भूलने और समूह से बिछड़ जाने वालों की मृत्यु किस किस प्रकार से हुई यह कोई भी कल्पना कर सकता है।  एक बार मेरे श्वसुर जी संग्रहणी से निढाल होकर एक पेड़ की छाँव में गिर पड़े। परन्तु एक मजबूत  शरीर के सिख भाई, जो उनसे बहुत बड़े थे उम्र में, उनको अपनी पीठ पर लाद  लिया और पूरे रास्ते ढो  कर बर्मा कैंप तक पहुंचा दिया।  वहां पहुँचाने पर सरदार जी खुद गिर पड़े और प्राण त्याग दिए।  ( फिल्म ‘ बोस ‘  में यह घटना दर्शाई गयी है ).
          बर्मा से प्राथमिक चिकित्सा के बाद नेता जी की बची खुची सेना को रेड क्रॉस की ट्रकों में डालकर भारत के लिए रवाना कर दिया गया।  उन्हीं में से एक मेरे श्वसुर जी भी थे।  ट्रक कलकत्ता में आकर रुका।  पता नहीं कबसे खाना नहीं मिला था। सबको अफीम का इंजेक्शन लगाकर जानवरों की भाँति भर दिया गया था।  अफीम से भूख नहीं लगती।  कपडे आदि भी गंदे ,अस्त व्यस्त।  पर होश में आते ही उन्होंने कलकत्ता में अपने एजेंट को फोन किया।  इंग्लैंड से आनेवाला माल कलकत्ता में उतरता था। अतः लाहौर की दूकान ,”राजा ब्रदर्स ” का शिपिंग एजेंट वहीँ था।  उसने आकर इनको  उबारा और लाहौर भेजा।  उस काल की सामाजिक रूढ़ियों से सताई हुई मेरी सास और बालक इन्दर को नया जीवन मिला।
           आगे की खुशियां पकिस्तान के बँटवारे में विलय हो गईं।  लम्बी कहानी है। फिर कभी सही।
          बुलेट ट्रेन की खिड़की से बाहर नदी पहाड़ बांस के जंगल निहारती मैं शायद सो गयी थी।  अचानक ही हिरोशिमा आ गया।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com