हास्य व्यंग्य

मेरे मानहानि का मामला

उस दिन आफिस की डाक देखते-देखते अचानक एक शिकायतनुमा पत्र पर मेरी नजर ठहर गयी! उसे एक ही झटके में पढ़ गया। दिमाग भन्नाया। घंटी दबाया और दबाता ही रहा। हड़बड़ाया चपरासी सामने आ खड़ा हुआ। कार्यालय सहायक को तत्काल हाजिर कराने का उसे फरमान सुनाया।
कार्यालय सहायक आ‌ गए। उन्हें शिकायती पत्र पढ़ने के लिए दे दिया।
“सर ! इस प्रकरण पर अभी कोई डिसीजन ही नहीं हुआ है! फर्जी शिकायत कर दिया इसने! सरासर आपकी मानहानि किया है!!” कार्यालय सहायक ने पत्र पढ़कर मेरे ऊपर शिकायत के प्रभाव का आकलन किया।
दर‌असल शिकायती-पत्र में मुझपर उत्कोचग्रहण कर शिकायत अनसुनी करने का आरोप लगाया गया था।

“शिकायतकर्ता के विरुद्ध थाने में एफआईआर दर्ज कराकर हाईकोर्ट में उसके विरुद्ध मानहानि का दावा भी ठोकुंगा!” शिकायत से भन्नाया हुआ मैं बोला।

“सर, परेशान न हों। यह तो शिकायतकर्ता की आदत है। इसी तरह से वह सरकारी कर्मचारियों को ब्लैकमेल करता है। यही नहीं, इसके लिए सूचना के अधिकार का भी इस्तेमाल करता है। उचित होगा कि पहले उसे नोटिस भेजकर इस शिकायत के संबंध में उससे साक्ष्य मांगा जाए, फिर विधिक कार्यवाही हो!” कार्यालय सहायक ने राय दिया।

“देखिए! जब ब्लैक होगा, तब न मेल होगा! वैसे भी ब्लैकमेल होना घाटे का सौदा है। क्योंकि कोई एक हो तो ब्लैकमेल हो लीजिए, लेकिन आजकल जिसे देखो वही ब्लैकमेल करने को तैयार बैठा है! कहां तक ब्लैकमेल हुआ जाए? शिकायतकर्ता तो शिकायतकर्ता! सरकारें भी अपने कर्मचारियों को ब्लैकमेल करने पर उतारू हैं..ब्लैकमेल होइए तो होते जाइए! ठीक है शिकायतकर्ता को एक तगड़ी नोटिस जारी करा दें…मैं भी उसे बताउंगा कि किससे पाला पड़ा है उसका!” लगभग गुस्से में कह गया मैं।
कार्यालय सहायक ने मुझे ऐसे देखा जैसे मेरे चेहरे के किसी ब्लैक स्पाॅट से मेल बढ़ाना चाहते हों, वैसे मैं दाढ़ी में तिनका खोजने वालों से सावधान रहता हूँ! बहरहाल मेरे मान की हानि के रिस्टोरेशन की प्लानिंग पर काम शुरू हुआ और शिकायतकर्ता को एक तगड़ी नोटिस जारी हो गया। इसी बीच मैंने भी अपने एक वकील मित्र को फोन मिला दिया पूरी बात से अवगत कराने के बाद मैंने कहा-

“देखो यार, एक शिकायतकर्ता ने मेरा मानहानि किया है, उसे सबक सिखाने के लिए मुकदमा दायर करना है।”

“हूँ.., लेकिन यार, इसमें कौन सी मानहानि, यह तो सरकारी मुलाजिमों में आम चलन की बात है! कैसे प्रमाणित करोगे कि तुम उत्कोचाग्रहण नहीं किए हो?” वकील मित्र की इस बात ने मुझे ही कटघरे में खड़ा कर दिया। लेकिन इसपर सफाई न देकर सीधे तथ्य की बात पर आया, “चलो मान लिया कि शिकायत दबाने के लिए मैंने उत्कोच लिया है, लेकिन क्या इसे कोई प्रमाणित कर पाएगा? जबकि अभी तक मैंने शिकायत भी नहीं दबाई है!”
“दबायी नहीं या दबी नहीं? यदि नहीं दबायी तो क्यों! क्या दबाने लायक वजन नहीं मिला?” बात में हास्यरस का पुट देने के प्रयास में वकील मित्र ने कहा।
“यार, मजाक छोड़ो, फ़िलहाल तो मुझे उस शिकायतकर्ता को ही दबाना है।” कहने को तो कह गया, लेकिन मित्र की वकील-बुद्धि से भी डर लगा कि कहीं वह यह न कह दे कि, “अच्छा!! जिससे शिकायत स्वयं दब जा‌ए।” खैर, इसकी जगह उसने गंभीर आवाज में यह पूंछा, “अच्छा छोड़ो! कितने का मानहानि हुआ कुछ बताओगे भी? क्या हिसाब लगाया है अपने मान की हानि का? कितने का दावा ठोकूं?

“अरे वकील तुम हो कि मैं! जिस लेबल का सरकारी नौकर हूँ, क्या उससे तुम मेरे मान का मूल्य नहीं आंक सकते?” हालांकि मैं फिर डरा कि कहीं वह यह न कहे कि “शिकायत से ही पता चल गया है तुम्हारे लेबल का!” इसलिए उसके बोलने से पहले ही मैंने कहा, “बाकी तुमसे क्या छिपा है मेरा! मित्र भी हो! शिकायत की फोटो कापी भेज रहा हूं उसे पढ़कर मेरे मानहानि का हिसाब लगा लो।” लेकिन इसके लिए वह तैयार नहीं हुआ। मजबूरन मुझे ही अपनी मानहानि का हिसाब करना पड़ा। अपने मान का रेट लगाना बहुत मुश्किल हुआ! काफी माथापच्ची करने पर भी जब मुझे अपना मान-दर समझ में नहीं आया, तो शिकायत में उल्लिखित उत्कोच लेने की मात्रा को ही मैंने अपना मान-दर मानकर उतना ही मानहानि होना मान लिया। इस पर वकील मित्र ने जोरदार ठहाका लगाकर कहा, “यार तुम्हारे मान की बस यही कीमत है! इससे ज्यादा तो मेरे वकालतनामा की फीस है! तुम्हारा केस लड़ने में मुझ जैसे वकील की ही अवमानना है!”
खैर, दोस्ती का तक़ाज़ा देकर मैंने अपने मानहानि का हिसाब समझाकर उससे कहा, “मैं ठहरा ईमानदार टाइप का, इस हिसाब में ज्यादा फेरबदल की गुंजाइश नहीं बन रही! और यहां बात मेरे मान-दर की नहीं, शिकायत दबाने का चार्ज भी इससे ज्यादे का नहीं बनता! मेरे लिए तो कोर्ट में वाद दायर करना ही पर्याप्त है। इससे ईमानदार सिद्ध होकर मैं चार्जशीटेड होने से बच सकता हूँ, और विभागीय ब्लैकमेल से भी मेरा बचाव होगा! यहां मेरी मदद करो।”
शायद मदद की बात पर पसीजकर उसने कहा, “तुमने सही कहा, तुम ईमानदार टाइप के हो, लेकिन सच तो यह है कि आज ईमानदारी की कोई कीमत ही नहीं! इसलिए ईमानदारों की इज्जत भी नहीं है। तुम ठहरे मित्र! मुझे मित्र-धर्म के नाते तुमसे वकालतनामे की फीस तो नहीं लेना है, लेकिन मुंशी-उंशी और रिट वगैरह के टाइपिंग का कुछ खर्चा-वर्चा तो पड़ता ही है, तो ऐसा है, जितने की मानहानि आंके हो उसमें बीस हजार और जोड़कर मानहानि-दावा कोर्ट में पेश करेंगे..आकर हलफ़नामे पर हस्ताक्षर कर देना! और इसके साथ फोन भी काट दिया। मुझे रिलैक्स जैसी फीलिंग आई, गोयाकि मेरा गया मान वापस लौट आया हो! इधर शिकायत से उपजा तनाव कम होने से मैं कुर्सी पर बैठे-बैठे कुछ ऊँघने टाइप का लगा।

जज सहब के सामने मैं गवाह के कटघरे में खड़ा था, उन्होंने मुझसे पूँछा –

“हाँ तो मिस्टर….आपने, अपने मान की हानि का आकलन कैसे किया? किन सबूतों और गवाहों के आधार पर और किस तरीके से?”

“मी लार्ड” के उद्बोधन के साथ जज महोदय को मैंने अपने मान निर्धारण की सारी प्रक्रिया समझाई। और अंत में उनसे रिक्वेस्ट किया, “मेरे लाॅर्ड…मुद्द‌ई और गवाह दोनों मैं ही हूं, मेरे दावे के आकलन का सबूत घूस का वह रूपया है, जिसे शिकायतकर्ता ने मुझे दिया ही नहीं! उसने झूठ बोला है और झूठ बोलना पाप है, शिकायतकर्ता पापी है, उसके पाप की सजा उसे मिलनी चाहिए और मानहानि के एवज में वह रूपया मुझे दिलवाया जाए।”
ठीक है..ठीक है..चलो मान लिया कि शिकायतकर्ता ने झूठ बोला और वह दोषी है और इसकी सजा भी उसे मिलेगी। लेकिन उसके झूठ बोलने से तुम्हारी इज्जत कैसे गई?”
जज साहब के इस प्रश्न का उत्तर मैं चाह कर भी नहीं दे पा रहा था। तभी संकटमोचक की तरह मेरा मित्र भागा-भागा आया और मुझे कठघरे से निकाल कर मेरे स्थान पर खड़ा हो गया और वहीं से बोला, “हुजूर! आखिर इज्जत क्यों नहीं जाएगी? शिकायती-पत्र में, जितने रूप‌ए लेने की बात कही गई है, क्या मेरे मुवक्किल की औकात उतने ही रूपए लेने की है? इसे और भी बढ़ाकर कहा सकता था! लेकिन शिकायतकर्ता ने मेरे मुवक्किल की कीमत कम कर दी, इससे जन सामान्य के बीच उसके पद का अवमूल्यन हुआ है और इसके उनकी आय में भी कमी आई है! यह बेइज्जती नहीं तो और क्या है?”
“वाह! मित्र ने गज़ब की दलील दी है” सोचकर मैं खुशी से उछल पड़ा।

लेकिन “मिस्टर वकील! यह सब मैं कैसे मान लूँ?” जज साहब के इस प्रश्न पर मैं मित्र की ओर देखने लगा।
“परवर-दिगार-ए-आलम! वैसे ही जैसे मैं यहां का सबसे बड़ा वकील हूं और उसी के हिसाब से मेरी फीस भी है, जिसे देना बड़े लोगों के बस की ही बात है! लेकिन यदि मेरी फीस कम हो जाए, तो क्या लोग मुझे बड़ा वकील मानेंगे? बल्कि इससे मेरी आय ही नहीं इज्जत भी घटेगी और मैं टुटपुँजिहा वकील कहलाऊंगा! इसी प्रकार शिकायतकर्ता ने मेरे मुवक्किल की इज्जत घटाकर उसे टुटपुँजिहा पदधारक बना दिया।”
वाह क्या बात है, वकील हो तो ऐसा ही, क्या दोस्त मैंने पाया! मित्र की इस दलील पर खुशी से मैं बल्लियों उछल पड़ा। तभी जज साहब की आवाज़ सुनाई पड़ी-
“जैसाकि आप ने कहा कि आप बड़े वकील हो, और इसीलिए आपकी फीस भी बड़ी है। कोई टुटपुँजिहा वेतनभोगी आपको अपना वकील नही बना सकता। इसका मतलब यही है कि आपका मुवक्किल टुटपुँजिहा नहीं, बड़ा आदमी है। और आज तक ईमानदारी से किसी को बड़ा आदमी बनते हुए मैंने नहीं देखा। दूसरी बात, यदि वह ईमानदार है तो हलफ़नामे में मानहानि के अपने ही हिसाब को फर्जी तरीके से बीस हजार क्यों बढ़ाया?” जज साहब के इन प्रश्नों से वकील साहब विचलित से दिखाई पड़े। यह देख मुझसे रहा नहीं गया और मैं कूदकर फिर से कठघरे में चला आया! जज साहब से बोला,

“मी लार्ड! वकील साहब मेरे मित्र हैं, मुझसे फीस नहीं लेंगे, मानहानि में प्लस यह बीस हजार रूपया इन बेचारे मेरे वकील साहब के अन्य हर्जे-खर्चे का है…जिसमें उनके मुंशी-उंशी का खर्चा शामिल हैं।”

इस बात पर जज साहब अब और नाखुश दिखाई पड़े। मेरे वकील मित्र से मुखातिब होकर कहा-

“वकील साहब! इस दलील से प्रतीत होता है कि आपका मुवक्किल आज भी काले धन के सृजन में लिप्त है, अन्यथा आप जैसा बड़ा वकील उसकी वकीली न करता! और क्योंकि घोड़ा घास से यारी नहीं कर सकता इसलिए वकील फीस न ले यह भी असंभव है!! बावजूद इसके यदि कोई यारी करता है तो उससे बड़ा बेवकूफ कोई नहीं! ऐसा बेवकूफ मेरी अदालत में वकालत करे, यह अदालत की अवमानना होगी! इसलिए क्यों न आपका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जाए?” इसके तुरंत बाद जज ने मुझे भी घूरा, “और आप, जो मिस्टर वकील साहब के मित्र बने फिरते हो, बहुत चालू चीज हो! अपने मानहानि के दावे में फर्जी तरीके से बीस हजार रूपए बढ़ाकर इसका हिसाब छिपाया है और झूठा हलफ़नामा दाखिल किया! इस तुच्छ मुकदमे के लिए बड़ा वकील खड़ा करने से स्पष्ट है कि आपकी आय में कोई कमी नहीं हुई है और न ही इज्जत घटी है! फिर काहे का मानहानि? इन तथ्यों से सिद्ध है कि आप काले धन के सृजन और झूठा हलफ़नामा देने के दोषी हो! चूंकि काले धन के सृजन-प्रक्रिया का सीधा साक्ष्य मिलना संभव नहीं, जिसके बिना पर सजा सुनाई जा सके। इसलिए क्यों न, आपकी अर्जित संम्पत्तियों की ईडी और इनकमटैक्स विभाग से जाँच कराकर साक्ष्यों पर आपकी सजा मुकर्रर हो?”

इसे सुनने ही काटो तो खून नहीं टाइप से भौंचक होकर सोचा, कहां आकर मानहानि के चक्कर में फंस गया!! जज साहब हथौड़े को उठाकर ऑर्डर-ऑर्डर जैसा कुछ करने ही जा रहे थे कि मेरा वकील बना मित्र कठघरे से निकलकर पेशकार के पास पहुंच गया और उसके कान में कुछ बुदबुदाया। इसके तुरंत बाद पेशकार ने भी जज साहब के कान में जाकर कुछ कहा। फिर क्या था! बिना ‘ऑर्डर-ऑर्डर’ के ही हथौड़े को धीरे से मेज पर रखा और अगली तारीख पर उभय पक्षों की उपस्थिति में व्यापक बहस होने की बात कहकर उठ ग‌ए।

इधर जज साहब को देखकर मित्र महोदय मुस्कुरा रहा था। उनके जाने के बाद वह मेरी ओर मुखातिब हुआ। उसके चेहरे का भाव बदला हुआ था। उसने कहा, “बड़े आए मेरा मित्र बनने! क्या जरूरत थी मुझे अपना मित्र बताने की? और मुझसे फीस नहीं लेंगे यह कहने की? देख रहे हो न, जज साहब भी कह रहे थे कि मित्रता को कानूनी दर्जा हांसिल नहीं! ऐसा करिए अभी बीस हजार मुझे पेशगी के तौर पर दीजिए, बाकी अगली तारीख पर देखेंगे।”
मित्र की बात पर मैं उलझन में आ गया, एटीएम कार्ड भी नहीं लिए हूँ, कैसे करूँ? कहाँ से जुगाड़ूँ इस बीस हजार रूपए को! मैं एक अजीब सी साँसत में था!
अचानक वर्तमान में आ गया! फालोवर कहता सुनाई दिया “चलिए साहब, ढाई बज ग‌ए हैं लंच कर लें” मुझे झपकी सी आ गई थी।

कुछ दिन बाद कार्यालय सहायक मेरे सामने आए तो उनके हाथ में एक चिट्ठी थी, उसे दिखाकर कहा –

“साहब, शिकायतकर्ता ने नोटिस का जवाब दिया है लेकिन अपने आरोपों का साक्ष्य न देकर गोल-मोल बातें ही लिखा है, मानहानि के मुकदमे के लिए किसी वकील से बात किया या नहीं?”

“अरे बड़े बाबू! छोड़िए…मानहानि-फानहानि को! जनहित में मानहानि सह लेना चाहिए, इसी में सब की भलाई है!”
******

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.