सामाजिक

क्या है हमारा?

हर साल 1 जनवरी को बार बार लोग सनातन संस्कृति का हवाला देकर नववर्ष का स्वागत करने से रोकते हैं लेकिन शायद ही वो अपनी कोशिश में एक प्रतिशत भी सफल होते हों । और तो और इस तरह की पोस्ट को सोशल मीडिया पर शेयर करने वाले भी उससे पहले सैकड़ों लोगों को नववर्ष की बधाई अग्रेषित कर चुके होते हैं।अपनी संस्कृति की सुरक्षा हम सब का परम कर्तव्य है लेकिन इस तरह के क्षुद्र विरोध हमें हमारी संस्कृति से जोड़ते नहीं बल्कि शायद दूर ही करते हों।आज हमारी वेशभूषा से लेकर खानपान तक सब कुछ लगभग शत प्रतिशत पाश्चात्य रंग में रंगा है।ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि यह वैश्विक संस्कृति का रूप ले चुका है।वास्तव में ये वैश्वीकरण और उससे भी ज्यादा बाज़ारवाद की संस्कृति है।आज हमने खुद को पूरी तरह से बाज़ार के हवाले कर दिया है।हम अपने रीति रिवाज वैसे ही मनाते हैं जैसे बाज़ार हमसे मनवाता है।त्योहार वैसे ही मनाते हैं जिसका नमूना विज्ञापनों के द्वारा हम तक पहुँचाया जाता है। शादियाँ वैसे ही करते हैं जैसे बाज़ार में प्रचलित हैं।पहले शादियों में वो रश्में निभाई जाती थी जो कुल खानदान में परम्परा से चली आती थीं।अब असल रश्में तो वही हैं जो मार्केट में चल रहीं हैं।हमारे जीवन की हर एक गतिविधि फ़ैशन और चलन से निर्धारित होती हैं।जब हम ताउम्र इसी के पीछे भागते ही जा रहे हैं तो एक दिन का विरोध बेमानी और बनावटी सा लगता है।हमारी असल सनातन संस्कृति तो उपनिषदों में छुपी है जो हमारे लिए वास्तव में कोई अदृश्य सी बात है। जहाँ आत्मा की आरोग्यता पर ज़ोर है शरीर तो चोला मात्र है।गीता में कहा गया कि आत्मा ही अजर अमर है ,तो हमें उसी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।हमारे वेद घोषणा करते हैं कि
‘आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः ।
अर्थात कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें।
हमने तो हमेशा विश्व को अपने आप में समाहित किया है।पूरी वसुधा ही हमारे लिए कुटुंब है।इसलिए किसी संस्कृति का विरोध नहीं अपनी संस्कृति की जड़ों को पहचानना आवश्यक है ताकि हमारी सनातन संस्कृति बाज़ारवाद के क्षुद्र स्वार्थों के आगे उपेक्षित न होती रहे।यही हमारी असल जिम्मेदारी है।

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश