सामाजिक

बहते पत्थर

बहते पत्थर।पता है क्यूं? हम सब बहते पत्थर ही तो हैं।समय की नदी के साथ बहते हुए पत्थर।जैसे नदी अपने साथ अनगिनत पत्थर लेकर अपनी यात्रा शुरू करती है।हर एक पत्थर अलग-अलग तरह से घिसकर अपने रूप को बदलता जाता है, कुछ मन्दिरों में भगवान बनकर स्थापित हो जाते हैं, कुछ रेल की पटरी के किनारे पहुंच जाते हैं कुछ बहुमूल्य रत्न और सजल पत्थर सरीखे दुर्लभ हो जाते हैं… कुछ नदी के साथ साथ बहते ही जाते हैं और नदी में घुल जाते हैं।हम सब भी तो समय रूपी नदी में बहते जा रहे हैं और धीरे धीरे घिस रहे हैं या यूँ कहें तराशे जा रहे हैं।पता नहीं किस किनारे जा लगेंगे।किनारे लगेंगे तो वो ही मंजिल होगी ।अगर नदी के साथ साथ चलते रहे तो घुल कर शायद उस परम ब्रह्म में समा जाएं। ये सब तो पहले से नियत है,जो होना होगा वो होगा।बस हमारी असली नियति तो बस बहते जाना है, बस उस प्रवाह का ही आनंद लेना है, चलना ही जीवन है बहना ही जीवन।जो बहता जाता है वो ही प्रवाह का असली आनंद पाता है, नयी नयी धाराओं के स्पर्श से आह्लादित होता जाता है।बस कोशिश यही करनी है कि किनारे लगने की जल्दी न करें हम । धारा के साथ बने रहें तभी जीवन के असली लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे ठीक वैसे ही जैसे नदी सागर तक पहुँचती है।हमें याद रखना होगा कि जैसे हर पत्थर नदी में घुलने और उस पर मर मिटने का सौभाग्य नहीं पाता उसी तरह हर नदी को भी सागर से मिलने की खुशकिस्मती नहीं मिला करती।ये उपलब्धि उसी नदी को प्राप्त होती है जो अपनी यात्रा को अनवरत धैर्य के साथ जारी रखती है।जिसे मंजिल पाने की जल्दी है वो या तो नदी किनारे या रेल की पटरी का पत्थर बन जाता है या वो नदी जो किसी और नदी में मिल कर उसे ही सागर समझ लिया करती है।अब ये निर्णय हमारा है कि हमें किनारा चाहिए या आनंद का अनवरत प्रवाह……

लवी मिश्रा

कोषाधिकारी, लखनऊ,उत्तर प्रदेश गृह जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश