यात्रा वृत्तान्त

मेरी जापान यात्रा -10

कोबे से ओसाका केवल २० मिनट की दूरी पर है।  होटल के स्वागत कक्ष में लगे सचित्र ब्रोशर के अनुसार यहां इतनी चीजें देखने लायक नहीं थीं।  असल में हम थके भी थे।  अतः पूरा टूर नहीं बुक करा और सैलानियों की तरह निकल  पड़े।  जल्दी ही लगा कि बड़ी गलती कर दी।  अतः एक टैक्सी रोकी और उससे कहा कि हमें यहां का सबसे दर्शनीय स्थान ले चले।  उसने दस मिनट बाद हमें एक आगमन स्थल पर उतारकर टूटी फूटी अंग्रेजी में इशारों की सहायता से समझा दिया सो हम उसी तरफ चल पड़े।  द्वार के पास ही एक ऑफिस था।  सिपाही घूम रहे थे। बड़ी बड़ी उनकी बंदूकें देखकर हम समझ गए कि हम ओसाका पैलेस /कैसल में दाखिल हो चुके थे।  सामने चौड़ी बजरी की सड़क थी।  टिकटें खरीदीं और लेफ्ट राइट शुरू।  नहीं था गुमान दूरी का न मौसम का। बजरी की सड़क के दोनों ओर युवा लड़के लडकियां स्टॉल लगाकर अपनी तैयारी कर रहे थे , सबके कपडे काले। सबके मेकअप चित्र – विचित्र।  सबके हाथ में गिटार या अन्य कोई बाजा उनकी अपनी ऊंचाई से बड़ा।  ” यम कर धार किधौं बरियाता ” .  हमने किसी से पूछा तो बेकार सर खपाई लगा।  उसे अंग्रेजी नहीं आती थी।  फिर उसी भीड़ के पास जाकर एक लड़की से पूछा तो उसने अमेरिकी अंदाज़ में समझाया कि यही रास्ता पैलेस को जाएगा। यहां आज नए बैंड ग्रुप्स का मेला लगा है।  देश विदेश से वह अपना संगीत लेकर आये हैं।  उसका पार्टनर और वह बेल्जियम से यहां आये हैं और अपना प्रदर्शन करेंगे। उसका पार्टनर, बित्ते  भर की  क़द- काठी का, माइकल जैक्सन लग रहा था।  चेहरे पर मूंछें उगने का प्रयास कर रही थीं।  लड़की दो तीन वर्ष  बड़ी रही होगी।
अनगिनत बैंड्स। अनगिनत बोलियां अनगिनत देश।  एक दिन के समय में हम उनको सुनने के लिए रुकनेवाले नहीं थे।  यही वजह थी कि हम डिज्नीलैंड आदि का ख्याल नहीं कर पाए।
         खैर ! हम चलते गए ,चलते गए , करीब डेढ़ या दो मील के बाद ओसाका कैसल  दिखाई पड़ा।  जान में जान आई। मगर इतना क्या आसान था ? सड़क के स्तर से करीब सौ फ़ीट की ऊंचाई पर बना हुआ था। एक ढलवाँ सड़क ऊपर चढ़ने की बनी थी।  हाँफते ,रुकते ,और आधे घंटे में हम ऊपर पहुंचे। देखा अन्य सभी यात्री बड़ी बड़ी कोचों से उतर रहे थे जो एकदम द्वार के पास उतारती थीं।   वहीँ ऊपर उनकी पार्किंग का भी इंतजाम था।  अनगिनत बसें।  खैर एक लम्बी क्यू में लग लिए।  आखिर तो बारी आ ही गयी।  अंदर जाने पर लाल फीते से चलने वालों के लिए गली नियत थी और तीन तीन गज़ पर एक स्वयंसेविका खड़ी थी।  कोई शोर नहीं सब मौन रहकर महल की सुंदरता और सजावट को देख रहे थे।यह दुर्ग राजा तोयोटॉमी हिदेयोशी ने १६हवीं शताब्दी में बनवाया था।  जापान के सभी बड़े शहर कभी न कभी किसी न किसी राजा की राजधानी रहे।   क्योंकि प्रथा के अनुसार प्रत्येक नया राजा अपनी राजधानी बदल लेता था।  इसीलिए इतने छोटे क्षेत्रफल वाले देश में इतने समुन्नत और दर्शनीय नगर हैं।  दूसरों की बनाई इमारतें तोड़ने फोड़ने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।  दो धर्म अपनी अलग अलग सत्ता बनाये हुए भी बराबर से जन साधारण के ह्रदय पर राज कर रहे हैं।
         तभी किसी मोड़ पर एक लम्बी- ऊंची साड़ी वाली दिखाई दे गयी।  नज़रें चार होने पर मैंने नमस्ते में हाथ उठा दिया। उसकी ओर से तनिक सा सर झुका कर स्वीकार करने का इशारा तो आया मगर वह नज़रें घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगी।
सिंथेटिक की फूलदार साड़ी ,मोटी  सी घड़ी और एक हाथ में हल्का सा कंगन। बिंदी नहीं थी।  दूसरी बार वह एक टेरेस पर खड़ी मिली। अकेली थी क्या ? मैंने फिर चेष्टा की। पूछा  आप कहाँ से आई हैं। उसने न समझते हुए कहा कि  मैं उसको भारत का समझ रही हूँ पर उसको मेरी भाषा नहीं आती।  वह फिर दर्प से मुड़ी  और चली गयी।  अब मैंने नोट किया कि वह अकेली नहीं थी। दो गज की दूरी पर चार युवक ,दो भारतीय और दो जापानी ,भी वहीँ थे और वह भी चल दिए।  उनकी चाल सधी हुई थी।  भारतीय दिखने वाले युवक बांगला भाषा में बात कर रहे थे।  यानि वह बांग्लादेश की कोई अफसर थी जो जापान घूमने आई होगी।  वह लोग बाद में मुझको बाहर जाने वाले द्वार के पास दिखे।  बाहर एक लम्बी लीमुसिन खड़ी थी। एक जापानी युवक ने दरवाज़ा खोला ,वह कार में बैठी और कारवाँ चल पड़ा।   अब जब देखताया था कि जापान के ओसाका में उन्होंने ती हूँ तो समझ आता है कि वह शेख हसीना जी थीं।  पर उस समय वह प्राइम मिनिस्टर नहीं थीं।
        पैलेस की सभी मंज़िलें घूम घाम कर हम बाहर निकले तो एक विशाल उद्यान में अपने आप को खड़ा पाया।  चेरी के फूल खिलने शुरू हुए ही थे ,मगर सफ़ेद रंग का पल्म ब्लॉसम पूरी बहार पर था।  बहुत सुन्दर अनुभव था।  रस्ते ऐसे निर्धारित किये गए थे कि हम स्वतः पिछले द्वार के पास आ पहुंचे।  थके थे।  एक बेंच पर आसन जमाया।  पानी आदि खरीदा। स्नैक्स खाकर जरा जान में जान आई।  दोपहर हो चली थी।  हमारे सामने लोग जमा होने लगे।  एक बाज़ीगर ,जो अमेरिका से बुलाया गया था ,अपने करतब दिखाने लगा। बच्चों और उनके अभिभावकों का मेला लगा था। मगर इतनी भीड़ में से कोई भी हमारे सामने दीवाल बन कर नहीं खड़ा हुआ।  इंग्लैंड में जब हम सं १९७७ में रानी की सवारी देखने बकिंघम पैलेस गए थे तो भीड़ में से कुछ प्रौढ़ व्यक्तियों ने मुझको और मेरे बच्चों को धक्का देकर पीछे धकेल दिया था।  बड़ी मुश्किल से बच्चे आगे जा पाए थे।  संस्कृति और तहज़ीब जितनी हमको पूर्वी देशों में दिखी उतनी पश्चिमी देशों में नहीं। और इसको   मैं भारतीय परम्परा से जोड़ती हूँ।  जहां जहां भारतीय धर्म और संस्कृति गए वहां वहां लोग अच्छे मिले।
        दिन का बड़ा हिस्सा ओसाका दुर्ग देखने में चला गया था।  अपने नियम के अनुसार हम एक मंदिर भी देखने गए। यह सहितेन्नोजी मंदिर था।  यह भी शिंटो धर्म के किसी देवता को समर्पित था।   तभी मुझको याद आया कि जब मैं बी ए में पढ़ती थी ,हमारी अंग्रेजी की अध्यापिका डॉ. अख्तर क़म्बर जापान घूम कर आई थीं और आकर हमें मोस गार्डन देखने की सलाह दी।  मोस यानि काई। पूछने पर हमको किसी ने बस का नंबर बता दिया और हम पहुँच गए।  पूरा दृश्य एक स्वप्न लोक की तरह हमारे सामने पसरा हुआ था।  काई की कई किस्मे यत्न पूर्वक लगाई गयी थीं। यह परत दर परत एक दूसरे से सटी हुई मखमली हरे रंगों में वर्षों से जमी हुई थीं।  कहीं कोई अन्य पौधा इनकी एकसारता को भग्न करता हुआ नहीं मिला।  बगीचे के बीच में एक संगमरमर से बनी नहर और पुल था। खूबसूरत मीनारें और छतरियां बनी थी जिनमे बैठा जा सकता था।  आखिर तो जापान अधिक वर्षा का प्रदेश है। काई को पानी चाहिए।  पहाड़ों पर भी गदेले के गदेले काई जमी हुई दिखी जो व्यापक परिवेश को अलग छटा बख्श रही थी।  जापान बांस का देश है।  काई के विलोम में लम्बे -लम्बे वंश वृक्ष अपनी मोहक उपस्थिति जता रहे थे।  बीच में बनी नहर में कमल की बेल फैली थी जिसमे फूल खिले थे  . विलो के पेड़ किनारे पर झुके हुए थे।  पतिदेव का कैमरा खिट – खिट  फोटो ले रहा था।  हमारा बचपन छलक रहा था और लोगों की मुस्कानों को आकर्षित कर रहा था।
           शाम घिर आई  थी।  हमंने जैसे तैसे स्वर्ग से विदा ली और फिर एक बस में सवार होकर अपने निवास के आस पास आ गए।  भूख लगी थी।  रात की रोशनियां देखकर हम वापस आ गए।  खूब तान कर सोये क्योंकि पाँव पत्थर के हो गए थे।  अब जाना था कियोटो।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com