कविता

परछाईं

वक्त कितना भी बदल जाये
हम कितने भी आधुनिक हो जायें,
कितने भी गरीब या अमीर हों
राजा या रंक हों
नर हो या नारी हों
परछाईं हमारी आपकी अपनी है।
सबसे करीब सबसे वफादार
साथ नहीं छोड़ती,
हम चाहें भी तो भी नहीं
मरते दम तक साथ निभाती है,
हमारे साथ चिता तक जाती
हमारे शव के साथ जलकर
हमारे शरीर का अस्तित्व मिटने के साथ

हमारी परछाईं मिट जाती

अपना वजूद खो देती।

मगर विडंबना देखिये
हमसे कुछ नहीं पाती
न ही कुछ चाहती है
परंतु हमारा साथ पूरी निष्ठा से निभाती
पर छाईं होकर भी
हमारे वजूद से हमेशा चिपकी रहती
हर कदम पर साथ देती
हमारी अपनी परछाईं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921