कहानी

माँ का थप्पड़

 उठ जा बेटा! भोर हो गयी। सुन! मुर्गा बाँग दे रहा-कुकड़ू कूँ, कुकड़ू कूँ। सुन तो!अज़ान भी सुनाई दे रही। मंदिर पर साधु लोग भजन का राग छेड़ चुके हैं। सुन ना! तेरे पढ़ने का समय हो गया है। आँखे तो खोल। देख,लालटेन जला दिया तेरे लिए।” ऐसा कह कर कृष्णा देवी अपने 6वर्षीय पुत्र सोहन को जगाती हैं। सोहन  रजाई के बाहर मुँह निकाल कर फिर अंदर कर लेता है-” ऊँ..ऊँ..  बहुत ठंड है।”  इस पर कृष्णा देवी जाड़े के उन दिनों में भी पानी के छीटे सोहन के मुँह पर मार देती थी। बोल पड़तीं “उठ-उठ-उठ, पानी बरसा ,पानी बरसा। भाग -भाग-भाग।” सोहन की नींद छू-मंतर हो जाती। वह उठ कर पढ़ने लग जाता है। कृष्णा देवी वहीं बगल घुर -घुर,घुर- घुर चकिया चलाने लगती है और गाती जाती हैं कि “जागो सीता राम जी बोलन लागी चिरई—।” उन दिनों यही चकिया ही परिवार के लिए आटा बनाने की मशीन हुआ करती थी। सोहन को रजाई की गर्माहट में फिर से नींद आजाती है।बस फिर क्या? माँ का थप्पड़, सोहन के  गाल पर चटाक~~~~। नींद रफूचक्कर हो जाती है। अब सोहन को सारी चीजें याद करने में कोई परेशानी न होती। उजाला होते-होते सब याद। अगले दिन विद्यालय में पुरस्कार भी मिलता जब उसे सारी विषय-वस्तु याद रहती।  यह था माँ का थप्पड़।
 सुबह होते ही लकड़ी के चूल्हे पर बनी अम्मा के हाथ की मोटी- मोटी रोटियाँ , देशी घी की खुशबू तथा आम का अचार व नमक। वाह! क्या स्वाद था। सोहन का न सिर्फ पेट भर जाता वरन आत्मा भी तृप्त हो जाती थी। सोहन अगली कक्षाओं में प्रवेश लेता है। कृष्णा देवी के जगाने पर सोहन कहता है-“आज क्या पढूँ? कहती हो पैसे नहीं हैं।किताबें लाओगी तब तो मैं पढ़ूँगा?” कृष्णा देवी समझाती है-” सोहन जरूरी नहीं कि किताबें हों तभी पढ़ाई होती है। विद्यालय में मास्टर साहब तो थे? क्या बताया समझाया ? वही बता बेटा मुझे। मैं पढ़ी लिखी तो नहीं हूँ पर मास्टर साहब ने जो सिखाया वही चर्चा कर ले मुझसे।” सोहन बड़े मन से मास्टर जी की बातें अम्मा से बताने लग जाता है। इस तरह उसे विद्यालय में पढ़ाए गये विषय को दोहराने का अवसर मिल जाया करता।
 कुछ बड़ी कक्षा में जाने के बाद सोहन का परिचय कामिक्स किताबों से हुआ। अम्मा अब भी सुबह 4 बजे पढ़ने के लिए जगातीं। सोहन उठ भी जाता। कभी-कभी पाठ्यक्रम की किताबों के बीच कामिक्स रख कर पढ़ता था। “अम्मा न जान पाएगी।” ऐसा सोचता। एक दिन विद्यालय में पाठ न सुना पाने पर दंड मिला।घर आने पर उदास था। अम्मा ने कारण पूछा ” क्या बात है?  तू तो रोज़ पढ़ता था। देखूँ तो कौन सा पाठ नहीं सुना पाया मेरा लल्ला।मेरे सामने पढ़ दो। मैं याद कर लूँगी ।रात में लेटते समय तुम्हें सुनाती रहूँगी। बस। अब हँस दो। हँसो हाँ—हाँ ।” सोहन की आँखों में पश्चाताप के आँसू भर आते हैं। माँ का चेहरा किसी झील की लहरों सा झलमलाता हुआ दिखाई देने लगता है। आँचल में छुप कर अम्मा!अम्मा! करके रोने लगता है।
 सोहन उस दिन से अपनी पढ़ाई पर बहुत ध्यान देने लग जाता है।
  अगली कक्षाओं में पढ़ता-बढ़ता अब वह स्नातक का छात्र है। उसके लिए हाई स्कूल से ही एक पुरानी साइकिल आ गयी थी। अब वह घर से 25 km दूर पढ़ने जाता है धूप-छाँव, जाड़ा-गर्मी सब उसे अच्छे लगते हैं। एक दिन अपनी बी एस सी की परीक्षा देने घर से 1बजे दोपहर में निकलता है। मई का महीना। तेज धूप। साँय-साँय करती दुपहरी में अगले गाँव की पगडण्डी पर एक बुढ़िया मिलती है। साइकिल पर बैठाकर साथ ले चलने को कहती है। सोहन जल्दी में है। पसीने से तर है।सोचता है न बैठाऊँगा किन्तु सहसा अपनी माँ की झुर्रियाँ याद कर वृद्धा को साइकिल पर बैठाकर चल पड़ता है। साइकिल चरर -मरर करके चलने लगती है। बुढ़िया कहती है ” जुग -जुग जियो बेटा, क्या नाम है तुम्हारा? क्या करने जा रहे हो? साइकिल धीरे चलाओ, मुझे झटके लग रहे हैं।” सोहन को परीक्षा की देर हो रही है। कहता है “माई मेरा इम्तेहान छूट न जाय इसलिए साइकिल तेज चला रहा हूँ।” बुढ़िया कहती है “कोई बात नहीं बेटा, समय पर पहुँचोगे।”
 सोहन को कालेज गेट पर पहुँचते-पहुँचते 15मिनट विलम्ब हो गया है किन्तु बुढ़िया की बात सच है। महाविद्यालय के सभागार में बिजली के तारों में अचानक आग लग जाने से  परीक्षा देर से शुरू हुई। बुढ़िया की दुआ का गूढ़ अर्थ अलग ही समझ आया। सोहन अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होता है। आगे चलकर मास्टर बन जाता है।
  एक दिन दुनिया की पीड़ा देख कर सोहन अपनी माँ से पूछता है कि-“माँ ! पेट भरने के लिए लोग चोरी -बेईमानी भी करते हैं। यह उचित ही है न माँ क्योंकि भूख ईमान को मार देती है? क्यों न माँ ,ऐसा ही तो है? कृष्णा देवी सही सीख देती हैं, “नहीं मेरे लाल। पेट की भूख बहुत ईमानदार होती है। ‘रोटी’ कभी बेईमान नहीं बनाती। बेईमान बनाती है तो ‘शौक’। जब हम अपनी आवश्यकता पूरी करते हैं तो ईमानदार होते हैं किन्तु जब हम अपनी इच्छा पूरी करने में लग जाते हैं तो हो सकता है कि मार्ग से भटक जाँय। इसलिए कहे देती हूँ कि तेरी किताबें तो नहीं पढ़ीं मैंने, पर तू पढ़-लिख कर नेक दिल इंसान बने रहना। अपना कर्म निष्ठापूर्वक करना।” सोहन को आज पता चला कि उसकी माँ पढ़ी लिखी तो नहीं है किंतु सोहन के लिए ज्ञान का विश्विद्यालय है। कर्तव्य निष्ठा के लिए समय पालन में माँ का थप्पड़ भी मील का पत्थर है।
—  अखिलेश चंद्र पांडेय

अखिलेश चंद्र पांडेय

सहायक अध्यापक, संविलित विद्यालय मानधाता, प्रतापगढ़ (उ.प्र.) मोबा. 9651061092