हास्य व्यंग्य

खट्टा-मीठा : लड़की नहीं, लड़ती हूँ

कोई पचपन साल की अधेड़ औरत यदि खुद को लड़की कहे, तो उस पर हँसी से ज़्यादा तरस आता है। दादी-नानी बनने की उम्र में लड़की बनने का शौक़ चर्राया हो, तो ब्यूटी पार्लर वाली भी आत्महत्या कर लेंगी। “सींग कटाकर बछड़े बनने” का मुहावरा ऐसे ही उदाहरणों से निकला होगा।

वैसे औरतों के लिए और विशेषकर अधेड़ उम्र की औरतों के लिए लड़ना कोई अजूबा नहीं है। इसका नजारा रोज़ ही आप किसी बस्ती के सार्वजनिक नल पर देख सकते हैं। “पहले मैं भरूँगी-पहले मैं भरूँगी” के वाक् युद्ध के साथ-साथ हाथ नचा-नचाकर जो महायुद्ध होता है, उसको देखकर बस्तीवालों का अच्छा मनोरंजन हो जाता है, वह भी बिना टिकट।

औरतों की इस लड़ाका-क्षमता का सही सदुपयोग राजनैतिक दल ही कर पाते हैं। वे अपनी रैली के दिन दिहाड़ी पर ऐसी औरतों को इकट्ठा कर  ले जाते हैं, फिर वे किसी सरकारी कार्यालय के सामने हिजड़ों की तरह हाथ नचाकर और ताली बजाकर अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन करती हैं। कभी-कभी वे किसी बात पर आपस में भी लड़ जाती हैं। तब नजारा और भी मनोरंजक हो जाता है।

यहाँ जिस अधेड़ महिला की बात हो रही है वह केवल यूपी में लड़ सकती है, क्योंकि यहाँ बाबा राज है। उसे राजस्थान पंजाब और छत्तीसगढ़ में झाँकने तक की याद नहीं आती, क्योंकि वे उसके अपने राज्य हैं। इसकी केवल नाक ही अपनी दादी से नहीं मिलती, बल्कि अक़्ल भी लगभग उतनी ही है। हाँ, धूर्तता में वह अपनी दादी से इक्कीस ही  बैठेगी, उन्नीस नहीं।

-— बीजू ब्रजवासी

पौष कृ. ८, सं. २०७८ वि. (२७ दिसम्बर, २०२१)