यात्रा वृत्तान्त

मेरी जापान यात्रा – 13

क्योटो का रेलवे स्टेशन मंदिर से बहुत दूर नहीं था।  हम अपनी छोटी छोटी सामान की ट्रॉलियां खींचते यथासमय  टाकायामा जानेवाली ट्रैन में बैठ गए।  यह लम्बी यात्रा होगी क्योंकि यह शहर टोक्यो से उत्तर पूर्व की तरफ पड़ता है।  और दूर भी है।  परन्तु जाना जरूरी है क्योंकि जब हम इंग्लैंड से आये थे तो संग बैठे  यात्रिक पत्रकार ने हमें बताया था की यदि जापान का मूल स्वरूप और जीवन शैली का दर्शन करना है तो टाकायामा अवश्य जाना।  यह अंतिम शहर होगा हमारे पर्यटन का। दो दिन हमें यहां रुकना होगा। यह एक पहाड़ी गाँव है जिसको  यथासंभव अपने मूल रूप में सुरक्षित रखा गया है।  अन्यथा जापान में विकास की गति इतनी तेज है कि सांस्कृतिक धरोहर नष्टप्राय है।   हिमाच्छादित पहाड़ी चोटियां यहां से दिखती हैं।  मौसम भी ठंडा है।
          हमको एक सचित्र नक्शा दिया गया है होटल की ओर से।  कल सुबह जल्दी उठकर हमें संख्या देखकर अपना फेरा लगाना है।   यह मंदिरों का शहर कहलाता है। इसको  प्राचीन जीवन शैली का उदहारण बना कर सुरक्षित कर दिया गया है।  अगर किसी को भागते समय को पछाड़ कर शांति से कुछ दिन बिताने हैं तो टाकायामा एक आदर्श जगह है।  और हमारे लिए तो यह अनोखा परिचित वातावरण साबित हुआ।  मंदिरों में सुबह शाम घंटियाँ सुनाई देती थीं।  जो कच्ची मिटटी के सुरक्षित घर थे उनमे रहन सहन का तरीका ,भारत  के गाँवों से अधिक पृथक नहीं था।     हाँ यह एकदम ठंडा  इलाका है  इसलिए घर में अंदरूनी दीवारें नहीं थीं। ताकि एक ही बड़ी सिगड़ी या अंगीठी से सारा घर गरम रहे।  यह अंगीठा घर के बीचों बीच बनाया गया था।  एक ओर रसोई का इंतजाम था जिसमे चक्की ,सिल या कूटनी आदि थी।  बड़े बड़े मटके अनाज भरने के लिए और पानी के लिए रखे गए थे ,बांस की करछी  व  चिमटे , कुँए से पानी खींचने के उपकरण आदि ,पत्थर की चौड़ी चौड़ी दौरियाँ आदि रखी हुईं थीं।  इसके अलावा पुराने ज़माने के हाथ से बने दरियाँ ,चटाई आदि थे। कपडे टांगने के लिए एक ओर रस्सी बंधी थी। खूंटियों का प्रयोग ,भोजन जीमने की चौंकियाँ ,फर्श पर पुआल बिछाकर उसपर बिछावन डालकर सोने का इंतजाम आदि सब बेहद घरेलू परिचित और कारगर लग रहा था।  गाय भैंस का तबेला अलबत्ता घर से बाहर बना था मगर सटा  हुआ।  स्नान का कोना , मेहमानो  का कोना या जगह आदि यथा योग्य जगह बने थे।  सबसे सुन्दर जो बात लगी वह थी पूजाघर।  हरेक घर के पूर्वोत्तर में एक आलमारी जैसी रखी थी जिसे अनेक तरह से सजाया गया था। उसमे बंदनवार जैसे मोतियों के हार टंगे थे या चित्रकारी थी।  इसके ताक देवताओं के लिए तो थे ही मगर उनमे सुख सौभाग्य के चिन्ह स्वरूप ,कपडे की गुड़ियाँ और गुड्डे सजे हुए थे।  इन गुड़ियों में और हमारे देश की कपडे की गुड़ियों में विशेष अंतर नहीं था।  हरेक दम्पति अपनी गुड़ियों की जोड़ी अलग बनाता था।  गुड़ियों का सिंगार देखने योग्य था।  कहते हैं कि यह उस घर की आत्मा होती हैं। अतः सब कुछ हट जाने के बाद भी उनको वहीँ स्थापित रहने दिया गया था।  दीपक जलाने के विविध उपकरण मुझे दीवाली के कलाकारों की याद दिला रहे थे।  कुछ पुराने ज़माने के कपडे भी प्रदर्शित किये गए थे।  इनमे रूई भरी बन्दियाँ बहुत परिचित लगीं।  लकड़ी के कैंची वाले खड़ाऊँ या चमड़े के विचित्र से बांधनेवाले जूते रखे थे।
           अगले दिन सुबह हम बाज़ार आदि देखने के लिए निकल गए।  एक प्राचीन बागीचा देखा जो अक्सर चित्रों में दिखाया जाता है।  एक नहर,  उसपर पत्थर की पुलिया ,पुलिया के दोनों सिरों पर नक्काशीदार छतरियां जो वर्षा से रक्षा के लिए बनी हुईं थीं।  जल में कमल ,जलाशय के दोनों ओर पदार्थियों  के लिए सुन्दर स्वच्छ पटरी  काई के गदेले और फूलों की क्यारियां।  इसके बाद हमने एक म्यूजियम का रुख किया।
             यह एक विशिष्ट म्यूजियम है।  टाकायामा में एक वार्षिक मेला लगता है जिसमे देवताओं  को मंदिर से बाहर ले जाकर रथयात्रा करवाई जाती है।  प्राचीन काल में यह सवारियां भक्तगण अपने कन्धों पर ले जाते थे।  तत्पश्चात ज़माना बदला और रथयात्रा घोड़ों द्वारा खींची जानेवाली गाड़ियों पर निकलने लगी।  बीसवीं शताब्दी में यह और भी तरक्की कर गयी।  सडकों के बन जाने से और मोटरों के आ जाने से इनका शहर में ट्राफ्फिक के संग फेरी लगाना अत्यंत कठिन हो गया अतः अब यह रथ बड़ी बड़ी ट्रकों के ऊपर रखकर बाहर ले जाए जाते हैं।  रथों की सज्जा पर बहुत कला और धन का व्यय किया गया है।  सोने ,चाँदी की नक्काशी ,एवं शोख रंगों का मिलान इनको बहुत  दर्शनीय  बना देता है।  लाल और नीला ,हरा और मैरून रंग ,वातावरण को गरिमा प्रदान कर रहा था।  पहले कभी यह रथ ज़मींदारों के घरानो से आते थे क्योंकि जापान में भी ज़मींदारी प्रथा थी। रथ को उठाना एक धार्मिक महत्त्व का कार्य था। अब यह प्रथा पुरानी  पड़ चुकी है अतः सभी रथ किसी बड़ी कंपनी या क्षेत्र की काउन्सिल की ओर से थे।
           बहरहाल यह प्रथा हमारी रथयात्रा की हूबहू नक़ल थी मगर रथयात्रा विश्व के अनेक धर्मों में निकालने का रिवाज़ है।  इसको एक वैश्विक धार्मिक परम्परा माना जा सकता है।  शहर में अभी भी पुल  आदि बेहद सुन्दर पत्थरों की नक्काशीदार दीवारों खम्भों आदि से सुसज्जित हैं। एक बाज़ार था जहां जापान के बहुचर्चित चीनी मिटटी के बर्तन बिक रहे थे।  निशानी के तौर पर हमने एक दर्जन कटोरे खरीदे अपने घर के लिए।
इस शांत सुन्दर शहर में सभी चेहरे मुस्कुराते हुए मिले।  सचमुच यहां आप कई हफ्ते रुक सकते हैं।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com