कविता

प्रकृति का कहर

प्रकृति ने हमें हर व्यवस्था दी
हमें हर सुख सुविधाएं दी
हमें रहने खाने जीने के
हर साधन उपलब्ध कराए
हमारी हर सुविधा के लिए
अपना दामन फैला रखा है।
पर हम सब प्रकृति के साथ
क्या कुछ नहीं कर रहे हैं?
प्रकृति के सहारे जी रहे हैं
प्रकृति से खिलवाड़ भी कर रहे हैं,
जल, जंगल ,जमीन का दोहन
दोनों हाथों से दिनरात कर रहे हैं।
प्रकृति में हमें अपने जीवन का
अक्स नहीं दिखता,
प्रकृति से जैसे हमारा कोई रिश्ता
कोई नाता है ऐसा नहीं लगता,
प्रकृति का दर्द भी
हमें महसूस तक नहीं होता।
प्रकृति जब दर्द से छटपटाती है
अपना कहर हम पर बरपाती
तब भी हम भला कहाँ चेतते हैं
सारा दोष प्रकृति पर ही मढ़ देते हैं।
हे मानव! अब सचेत हो जाओ
अपने घमंड को छोड़
वास्तविक धरातल पर आओ,
इंसान हो तो प्रकृति के साथ भी
इंसानियत का रिश्ता निभाओ।
वरना अपनी बर्बादी के लिए
पूरी तैयार हो जाओ,
प्रकृति का कहर झेल पाओगे
इतनी तुम्हारी औकात नहीं है,
प्रकृति से पंगा लेकर जी पाओगे
तुम्हारी ये बिसात नहीं है।
प्रकृति का संदेश संकेत
समझ सको तो बेहतर है,
वरना प्रकृति का कहर
झेलने को हमेशा तैयार रहो
अपने अस्तित्व से हाथ धोने को
अब तैयार हो जाओ।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921