सामाजिक

आज भी द्रौपदी कृष्ण को निहारती-पुकारती 

आपको कुछ अजीब तो नहीं लगा कि कौन सी द्रौपदी की मैं बात कर रही हूं ? एक द्रौपदी वो जिसे पांडुओं ने जुए मे हार  दिया था । सिर्फ और सिर्फ  कान्हा ही थे जो निरंतर शकुनि,दुर्योधन, दुःशासन जैसे पापी दुराचारियों की भयानक राजनीति के भंवर  से उसकी लज्जा को बचाने में लगे  रहे ।

स्वयं वासुदेव को दीन द्रौपदी को षड्यंत्रों से बचाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करनी पड़ी ।
ऐसे ही मुझे द्रौपदी का कलयुगी अवतार इस जनता में दिख रहा है । आज बेचारी जनता एक प्रताड़ित द्रौपदी ही तो है,जिसका चीर हरण कौरवों से स्वार्थी ये राजनेता  कुछ देर के लिए नहीं हर पल कर रहें हैं ।
 मानसिक,शारीरिक, आर्थिक, और न जाने कितने ही प्रकार से सताया जा रहा है उसे ।
 बस हर पाँच साल में एक आशा के संग वह द्रौपदी मूर्छित अवस्था से उठ जागती है, किसी नए राजनेता के गद्दी पर पधारने और उसके द्वारा किए गए वादों को निभाने के इंतजार में कि अब यही उसके तारणहार कृष्ण बनेंगे ! किन्तु उसकी सारी उम्मीदें मिट्टी मे मिल जाती हैं जब कोई नया भेष ले प्रपंची दुशासन, दुर्योधन अट्टहास करते हुए सब वादे झूठे कर देते हैं ओर तोड़ देते हैं उसका विश्वास । चरमरा जाती है, छटपटाती है, कराहती है किंतु कुछ नहीं कर पाती बेचारी और सहती है हर दुर्व्यवहार कभी आंचल पर, कभी महंगी हुई जिंदगी पर, कभी भूख और महामारी पर । यह द्रौपदी का चीर हरण ही नहीं उसका सम्पूर्ण पतन है !
बस पुकारता है उसका हृदय बार-बार कि मेरे कृष्ण तुम नहीं आओगे मेरा चीर बढ़ाने, मेरी अस्मिता संग मेरे अस्तित्व को बचाने ।
कितने दुर्योधन, दुशासन और शकुनि से मामा यहां इर्द-गिर्द घूम रहे हैं ! मृत हो गई है इन सबकी आत्मा जो परमात्मा को भूल खुद को ही अहंकार में सर्वस्व मानती है ।
 हे ! वसुदेव  तुम्हारे अंतिम प्रहार का भी भय नहीं इन्हें !
जीर्ण-शीर्ण, जर्जर और बेजान सी होकर चुपचाप बस सहना ही उसकी जिंदगी हो गई है ?
एक आता है वो चीर हरण करता है जमके, दूसरा आता है वो भी चीरहरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ता ।
क्रम से आते हैं साम-दाम,दण्ड-भेद  अपने वर्चस्व के लिए  जो किसी को नहीं बख्शते ।
हर तरफ से बस द्रौपदी पर मार है  उसे तो दांव पर लगना ही है हर ओर से क्योंकि चारों ओर  दुर्योधन ही दुर्योधन खड़े हैं । जाए तो कहाँ जाए ? बस हाथ जोड़ सकती है ,प्रार्थना कर सकती है कि कोई कृष्ण बनकर आए और शीघ्र इस चीरहरण को रोक दे । रोके अट्टहास की आवाज कर्णपटल पर पड़ने से, रोक दे छल का ये विनाश ।
सिसकते मन से प्रार्थना कर रही है कि फिर चुनाव आ गए हर बार की तरह बस अब सुन लो ही देवकी नंदन बस अब बहुत हुआ ….…..…
सुनो प्रार्थना है तड़पती फिर द्रौपदी,
मुझे चीर दो छीने जिसको है बदी ।
सुदर्शन चला समझा दो ज़रा इन्हे,
कि कृष्ण आ गए बदलने को सदी ।।
— भावना अरोड़ा मिलन

भावना अरोड़ा ‘मिलन’

अध्यापिका,लेखिका एवं विचारक निवास- कालकाजी, नई दिल्ली प्रकाशन - * १७ साँझा संग्रह (विविध समाज सुधारक विषय ) * १ एकल पुस्तक काव्य संग्रह ( रोशनी ) २ लघुकथा संग्रह (प्रकाशनाधीन ) भारत के दिल्ली, एम॰पी,॰ उ॰प्र०,पश्चिम बंगाल, आदि कई राज्यों से समाचार पत्रों एवं मेगजिन में समसामयिक लेखों का प्रकाशन जारी ।