इतिहास

हिजाब में इतिहास

जब आप नालन्दा विश्विद्यालय जाएंगे तो दो चित्र मिलते हैं। एक प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय में स्थित महात्मा बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र, जिन्हें उन्होंने धर्म सेनापति की उपाधि दिया था, उनका समाधि स्तूप है और दूसरा नव नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन, जो सारिपुत्र की समाधि की अनुकृत के आधार पर बनाया गया है।

यद्यपि सारिपुत्र की समाधि छठीं शताब्दी ईशा पूर्व की है, जिसे सम्राट अशोक ने अपने राज्यकाल में भव्यता प्रदान कि था और जो बारहवीं शताब्दी तक अपने भव्यतम रूप में थी। बारहवीं शताब्दी (1199) में बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया और सारिपुत्र का यह स्तूप ढूह बन गया और इस ढूह में दबे हुए भारत के इतिहास को जब कुरेदा गया तब इतिहासकारों द्वारा उस पर हिजाब पहनाने का प्रयास हुआ। दुनिया के इस अद्वितीय विश्वविद्यालय को आग लगाने वाले उस बर्बर, जाहिल, क्रूर आक्रान्ता को यह कहकर बचाने का प्रयास किया जाता है कि उसने इसे कोई किला समझ लिया, लेकिन छः मास तक जलते हुए सात मंजिले पुस्तकालय और उसमें रखी पुस्तकों को उसने क्या समझा था, यह बताने में ये हिजाबी इतिहासकार संकोच करते हैं। कब तक ढकोगे? कितना ढकोगे?

ये दोनों भवन भारत के इतिहास और वर्तमान के बीच के दो छोर हैं। इनके बीचे में दबे हुए भारत के आठ सौ वर्ष के इतिहास पर विगत पचहत्तर वर्षों से निरन्तर हिजाब पहनाने की कोशिश हो रही है। अब वह समय आ गया है जब भारत के इतिहास को हिजाब से बाहर किया जाए।

इन सब बातों का उन लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं है, जिनके लिए बिरयानी ही महत्वपूर्ण है चाहे वह थूक के बनी हो या बीफ की बनी हो। उनके लिए भी कोई अर्थ नहीं है जो छुट्टे पशु की तरह जीना चाहते हैं। उन्हें तो बस खेत खाने से मतलब, खेत चाहे किसी का हो और उसके देख-रेख में चाहे किसी ने कितना भी श्रम किया हो। लेकिन उन लोगों लिए इसका बहुत अर्थ है जिन्हें अपने पूर्वजों के भारत के चप्पे-चप्पे पर किए त्याग और बलिदान का बोध है। आज हम अजान और भजन के सौहार्द से यहाँ नहीं खड़े हैं, बल्कि आज भजन इसलिए गा पा रहे हैं क्योंकि इसके लिए हमारे पूर्वजों ने निरन्तर आठ सौ वर्षों तक बलिदान किया है।