राजनीति

युद्ध उचित या अनुचित

युद्ध को उचित कहना केवल अपनी पीठ थपथपाने जैसा है। परंतु युद्ध के उचित अनुचित की बात करने से पूर्व हमें ये सोचना चाहिए कि इस युद्ध से आखिर हासिल क्या होगा या हो सकता है। यह सही है कि युद्ध किसी समस्या का अंतिम विकल्प नहीं है और युद्ध को जायज ठहराकर भी युद्ध के परिणामों का खुद पर क्या फर्क पड़ेगा।इस पर भी विचार आवश्यक है।
हार जीत को पीछे छोड़ यह भी समझने की जरूरत है कि जीतकर भी हमें खोना कितना पड़ेगा।अब यह तो नहीं कह सकते कि सब कुछ आपको मिलेगा ही। खोना भी पड़ेगा। जन धन की कुछ तो क्षति जीतने वाले को भी होगी। चाहे वो व्यक्ति, परिवार,समाज या राष्ट्र हो। युद्ध में क्षति ही होती है, बस किसी को कम किसी को ज्यादा। लेकिन विचारणीय यह भी है कि जीतकर भी जो हमने खोया है, क्या उसकी तुलना जीत के साथ करने की हिम्मत है हममें।खोखले दावे कुछ भी कर लें, परंतु हमाराअंतर्मन हमारा सूकून छीन लेता है, हमसे पूछता है कि आखिर इस युद्ध से आपको मिला क्या?
लेकिन हम इस सच से मुँह चुराएंगे, सच को स्वीकार नहीं करेंगे, सिर्फ दिखावटी संतुष्टि के साथ जीत का घमंड भर दिखाएंगे।
युद्ध को उचित कहना उस खुदकुशी करने जैसा है कि मरने का प्रयास भी विफल हो गया, और जीने का हौसला पूरी तरह बिखर गया।
समस्या का शांतिपूर्ण हल सबसे बेहतर है और इसके लिए बातचीत से सुखद हल निकालने की कोशिश सबसे अच्छा रास्ता। आपसी बातचीत से जो परिणाम निकलता है उससे आत्मीय संबंध मधुर होने की गुंजाइश भी अधिक होती है।
युद्ध को हमेशा अनुचित ही कहना सर्वथा उचित है क्योंकि बहुत कुछ खोकर अपना अहम ऊँचा रखकर यदि हमें जीत मिलती भी है,तो वह किसी हार की तरह ही है।
इसलिए धरातलीय युद्ध के बजाय बातचीत की मेज पर तार्किक और बहुउद्देशीय सकारात्मक युद्ध कीजिए।अंत सुखद ही होगा, भले ही थोड़ा समय लगेगा। परंतु विचार करने का समय मिलेगा, भूल सुधार की गुंजाइश होगी।जो युद्ध में नहीं मिल सकता है।
इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि युद्ध उचित नहीं कहा जायेगा। अनुचित को उचित कहना भी अनुचित ही कहा जायेगा।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921