कविता

मन का एक कोना

सुनो !
मन का एक कोना
जहां तुम चुपके से आकर बस गए थे
और मैंने भी खोल दिए थे द्वार
बिना किसी परवाह के

एक विश्वास तो तुमने थमाया था मेरे जज्बातों को
और जिनसे लिपटकर न जाने कितने
मेरे भीतर
नन्हें- नन्हें एहसासों की कलियां खिली थी।

सुनो ! जानते हो
ये पूस की सर्द रातों में
आसमान के सीने से जब रिसता हैं दर्द
रोती है धरती और
ठिठुरते हैं जीव-जंतु

तब वो और मैं एक से होते हैं
बर्फ सी बूंदें और मेरी आँखों का गर्म आंसू

तुम से दूर होने का दर्द
या यूं कह लें
हमसे दूर जाने का इरादा तुम्हारा
मेरे सीने को
खंडहर बना रहा

तुम्हें शायद नहीं पता
प्यार का दर्द
मन के हरियाली को रौंदकर
काली सुरंगों में तब्दील कर देता
जो न जीने देता है और न मरने देता

पर तुम खुश रहना
मैंने तो मुहब्बत की है।

*बबली सिन्हा

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