पुस्तक समीक्षा

मैं किस किस का बालम

गुदगुदाने वाले संस्मरणों और “मैं किस किस का बालम” नाम वाले संस्मरण संग्रह में कुल छब्बीस संस्मरणों को समाहित कर पुस्तक रुपए में प्रकाशित संग्रह को वयोवृद्ध लेखक जगदीश खेतान जी ने अपने माता पिता स्व. जमुना देवी और स्व.छेदी लाल जी को समर्पित कर बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है।

विभिन्न विषयों पर गहन चिंतन और परिवार, समाज, राष्ट्र के साथ संबंधों, परिस्थिति और घटनाओं पर पैनी नजर रखने और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति समर्पित रहकर जगदीश खेतान जी ने अपनी धारदार लेखनी से चेतना जगाने, संदेश देने के साथ हर किसी किसी को मुस्कान देने का जैसे वीणा अपने कंधों पर लिया है।  संग्रह के संस्मरण सोद्देश्य की दिशा तय करते प्रतीत होते हैं, जो पाठकों को बांधे रखने में समर्थता का द्योतक है।
हास्य के जादूगर सरीखे खेतान जी ने “अपनी बात” में अपनी शिक्षा और साहित्यिक यात्रा प्रारम्भ और आगे बढ़ते परिदृश्यों का साफगोई से वर्णन किया।
“मेरा बचपन” में उन्होंने अपने बचपन को पूरी तरह उजागर करने को प्रयास किया है।
पुस्तक के नाम वाले अपने पहले संस्मरण में उन्होंने संग्रह के नाम की सार्थकता को सिद्ध कर दिया।
संग्रह के सभी संस्मरणों को पढ़ने से महसूस होता है कि उनकी लेखनी विशिष्ट होने के साथ याददाश्त भी बहुत पैनी है।
हास्य पुट के साथ उन्होंने अपने संस्मरणों के लिए जो विषय चुनें है, वे भी अधिसंख्य न केवल गुदगुदाते हैं, बल्कि रोचकता और संदेशात्मक भी हैं, अपने और अपनों के साथ, अपने आसपास की घटनाओं की तरह ही महसूस होते हैं। विषयों की विविधता उनके वैचारिक, व्यवहारिक और सामाजिक चिंतन क्षमता का अनूठा प्रतिबिंब लगते हैं।
रोचकता और आकर्षण ऐसा कि पाठक बिना पढ़े हट नहीं सकता। क्योंकि पाठक आगे क्या के चक्रव्यूह में बंधकर रह जाता है। मेरे विचार से चाहे जितनी भी बार इस संग्रह का पाठन किया जाय, नीरसता तो दूर दूर तक नहीं महसूस होगी।
विधा अनुसार शब्दों की मर्यादा के दायरे में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने की जिद भी खेतान जी शब्दों के चुंबकीय आकर्षण सरीखे उद्देश्य में सचमुच ही में सफल रहे हैं।
ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि प्रस्तुत संग्रह पठन के बाद पाठकों की अपेक्षाएं निश्चित ही खेतान जी से बढ़ेंगी और वे अपने लेखकीय दायित्व को और चिंतनशीलता के साथ आगे बढ़ाएंगे और अपने अन्यान्य संग्रह के साथ पाठकों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराते ही रहेंगे।
संग्रह के आखिरी कवर पेज पर उनका परिचय उनकी योग्यता का स्वयं ही प्रदर्शन करता है।
संक्षेप में कहें तो ‘मै किस किस का बालम” या इस तरह के अन्य संग्रहों पुस्तकालयों में जगह मिलनी चाहिए जिससे न केवल पाठकों का बल्कि समाज का भी भला होगा, बल्कि होंठों से गायब हो रही मुस्कान वापस लाने में सहायक भी सिद्ध होगी। क्योंकि पाठक पढ़ते हुए अपने या आसपास की कथा/घटना को यथार्थ में महसूस करने , खुद से, समाज से जुड़ने, जोड़ने को बाध्य होता है, तब उसके व्यवहारिक सोच और बर्ताव में भी बदलाव साफ देखने को मिल ही जाता है।
सर्व भाषा प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित 101 पृष्ठों के संग्रह की कीमत मात्र रु. 200 रखी गई है,जिसे वर्तमान परिस्थितियों के सर्वथा योग्य ही माना जाना चाहिए।
प्रस्तुत संग्रह की सफलता के विश्वास के साथ जगदीश जी को सतत दायित्व बोध के साथ रचना कर्म जारी रखते हुए आने वाले अगले संग्रहों हेतु अग्रिम शुभकामनाएं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921