हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – यूँ तो नजर…

यूँ तो नजर कई तरह की होती है जिसके निश्चित प्रकार गिने नहीं जा सकते, पर हाँ आज हम कुछ नजरों के बारें में चर्चा करते हैं । एक नजर से परिचय सर्वप्रथम बचपन में माँ ने कराया, जब हम नयें कपड़े पहनकर घर से बाहर निकलते तो माँ कहती – मेरे कान्हा को किसी की नजर ना लग जाये । पर उस अवस्था में हम नहीं जानते कि ये नजर किस चिड़िया का नाम है । जब कोई मोहल्ले की काकी-ताई सहजता में मेरे सुन्दर कपड़ों के बारें में कुछ कहती तो माँ थूका करती थी जिससे उस नजर का प्रभाव कम पड़ जाए । धीरे-धीरे हम इतने समझदार हो गए कि हम पापा की नजरों से ही ज्ञात कर लेते कि वो गुस्से में हैं या फिर सामान्य । इसके बाद तो तिरछी नजर, पैनी नजर , प्रेम भरी नजरों से समय-समय पर पाला पड़ने लगा ।

          अब आप इतना ही समझकर संतुष्ट मत हो जाना कि नजर के प्रहार का असर केवल एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य पर ही होता था । नजर तो पशु-पक्षी तक पर असर करती थी । अब केवल नजर का असर बुरा ही होता है ऐसा भी नहीं है, यदा कदा नजर भला भी कर देती है । और व्यक्ति जिस कार्य के बारे में सोच भी नहीं सकता वो काम, ये नजर एक झटके में कर के दिखा देती है । यूँ तो नजर के प्रभाव ने भगवान को भी नहीं छोड़ा । किसी को कहते हुए अवश्य सुना होगा कि आजकल भगवान की नजर हम पर नहीं है या फिर आजकल भगवान हम पर तिरछी नजर करें हुए हैं । नजर पर किसी शायर ने क्या खूब लिखा है-
” नजर से शर कलम कर दे उसे शमशीर कहते हैं
  निशाने में जो लग जाये उसी को तीर कहते है “
लिखते-लिखते याद आया कि एक शायर का नाम ही ‘नजर’ हुआ है उर्दू साहित्य में । वाह नजर तूने साहित्यकार तक को नहीं छोड़ा । लगता इस जमाने में तुझसे कोई बच पाया हो । जब नज़र साहब का खयाल आ ही गया तो फिर उनका भी ये नज़राना स्वीकार कर ही लीजिए-
“नज़र से नज़र को सलाम आ रहे हैं
फिर उनकी तरफ से पयाम आ रहे हैं,,
चलो , नज़र की नज़र तो विशद रही पर सामान्य जन की नजर भी छोटी नहीं होती, उसकी भी नज़र सातों लोकों में कब विचरण करके आ जाती है उसे स्वयं को पता तक नहीं चलता । हाँ, पता भी जब चलता है जब उसका असर दिखने लगता है । पर ये असर अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी ।
उपरोक्त नजरें तो आदिकाल से चली आ रही हैं  पर कुछ नजर आजकल ज्यादा अपना सिक्का जमायें
 हुए हैं । जब दो मित्र वर्षों बाद मिलते हैं तो एक दूसरे से सर्व प्रथम ये ही प्रश्न करते हैं अरे, तेरे भी चश्मा लग गया कितने नंबर का है, दूर की नजर का है या पास की नज़र का । ये दूर की नजर, पास की नजर केवल चश्मे के गिलास तक सीमित नहीं रही, अब वह नजर व्यक्ति के स्वभाव के साथ-साथ व्यवहार में भी घुस गई है । समझ गये होंगे अर्थात किसे दूर की नजर से देखना है किसे पास की नजर से । ये स्वयं व्यक्ति ने सोच रखा है । जिसे दूर की नजर से देखना है उसे हम पास की नजर से कैसे देख सकते हैं ।
    लगता है मन और नजर एक ही माँ के जायें हैं अर्थात दोनों भाई-बहिन हैं । ना मन ही एक जगह टिकता है ना ही ये नजर । दोनों ही चंचल व चितचोर हैं  इस प्रकार तो मन के लिए पहले ही कहा जा चुका है पर आज से मन की श्रेणी में नजर को भी रख दिया जाये तो नजर के साथ सच में न्याय ही होगा । अब देखते हैं कि आप सबकी नजर मेरे इस आलेख पर कैसी रहती है, जय हो नजर महारानी की…
— व्यग्र पाण्डे 

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201