स्वास्थ्य

सही ढंग से सांस लीजिए और रोगों से मुक्ति पाइए

प्राणी उन्हें कहा जाता है, जिनमें प्राण हैं I सांसों पर ही प्राण अवलम्बित हैं, इसलिए यदि सांस है तो प्राण है I अर्थात् सांस जीवन की प्रमुख आधारशिलाओं में से एक है, और यही कारण है कि फेफड़ों, ह्रदय, मस्तिष्क, गुर्दे और लीवर को वाइटल अंग माना जाता है I सांस के लिए हमें स्वेच्छा से कुछ अतिरिक्त नहीं करना पड़ता है, इसलिए सांस स्वत: (आटोमेटिक, सिम्पेथेटिक या पैरासिम्पेथेटिक ) चलती रहती है, इसलिए हम निश्चिन्त रह कर सांस की महत्ता को अनदेखा करते रहते हैं I वर्तमान तनावपूर्ण जीवनशैली के चलते हम गलत विधि से सांस लेने लगते हैं, अनुमानत: लगभग 80% लोग गलत विधि से सांस लेते हैं, जो नैसर्गिक गहरी सांस को उथली बनाने में सक्षम होती है I इसीलिए महर्षि पतंजलि जैसे दृष्टा ऋषि ने प्राणायाम को अत्यधिक महत्ता दी है I

यदि हमें स्वस्थ रहते हुए अधिक समय तक जीना है तो शरीर कार्यिकी (फिजियोलॉजी) के तहत नैसर्गिक विधि से सांस लेना होगी I अमेरिकन लंग एसोसिएशन ने “लंग हेल्पलाइन” पर शरीर कार्यिकी के अनुसार सही ढंग से सांस लेने हेतु कुछ टिप्स डाली हैं, उसमें यह कहा गया है कि मनुष्य “बेली ब्रिदर” है, जिसका अर्थ यह है कि जब मनुष्य सांस लेता है तो नैसर्गिक रूप से पेट बाहर आता है I वास्तव में मनुष्यों में सांस लेने के लिए जो मांसपेशी मुख्य रूप से जिम्मेदार है, वह आमाशय और लीवर के ऊपर तथा ह्रदय और फेफड़ों के नीचे विद्यमान होती है, जिसका नाम है, डायफ्राम (वक्षोदर मध्यपट), सांस लेते समय यह मध्यपट नीचे जाता है, जिसके कारण पेट के अंगों पर दबाव पड़ता है और पेट बाहर आता है I अस्तु, जब हम पीठ अथवा पेट के बल लेटते हैं, तो सांस स्वत: सही ढंग से चलती है I

गलत ढंग सेली गई सांस अर्थात् उथली सांस के कारण शरीर के सभी अंग संस्थानों, अंगों, प्रत्यंगों, उत्तकों और कोशिकाओं को आवश्यक मात्रा में प्राणवायु (ऑक्सीजन) नहीं मिल पाती है और प्राणवायु की इस कमी की आपूर्ति के लिए ह्रदय और फेफड़ों को अधिक काम करना पड़ता है I यह बढ़ा हुआ कार्यभार निरापद नहीं होता है I आपूर्ति के लिए ह्रदय तथा सांस की गति तेज हो जाती है I इसके दीर्घावधि परिणाम भी शरीर को ही भोगना पड़ते हैं I चूंकि भारत में लोकजीवन में सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि हमारी मृत्युपर्यन्त तक की कुल सांसों की संख्या सुनिश्चित है, इसीलिये तो मरणासन्न व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि वह अन्तिम सांस गिन रहा था, पाठकों ने भी देखा होगा कि मृत्यु के सन्निकट अनेक लोगों की सांस तीव्र हो जाती है, मानो वे सांसों की संख्या की शीघ्रता से आपूर्ति कर रहे हों I अतएव यह समझ लेना चाहिए कि सही ढंग से सांस नहीं लेंगे तो प्राणवायु की आपूर्ति के लिए जो सांसें तेज हुई हैं, आपकी उन्हीं गिनी हुई सांसों में से ही समायोजित होती हैं I

सांसों के इस हिसाब के विषय में प्रसिद्ध लेखक श्री शान एंडरसन ने लिखा है, We each have a finite number of breaths in life. Why waste a single one believing” I can’t”. कछुआ एक मिनट में 3 से 4 बार सांस लेता है और वह चार सौ सालों तक जीवित रहता है I मनुष्य औसतन 15 बार, योगी एक मिनट में 4-5 बार सांस लेते हैं, योगियों-मुनियों की अकल्पनीय अधिक आयु के लिए भी उनका सांसों पर नियंत्रण ही जिम्मेदार है I

यदि आप दिनभर में अनेक बार स्वयं का और अपने परिजनों का निरीक्षण करेंगे तो आपको स्वत: ज्ञात हो जाएगा कि सांस लेने का ढंग सही है अथवा नहीं I यदि गलत है तो उसे प्रयासपूर्वक सुधारें I वैसे यह बताना प्रासंगिक होगा कि मैंने एम.बी.बी.एस. कर रहे अनेक विद्यार्थियों का निरीक्षण किया और यह पाया है कि अधिकाँश विद्यार्थी गलत विधि से सांस लेते हैं I जबकि चिकित्सा-विद्यार्थी सांस लेने-छोड़ने की वैज्ञानिक विधि को भलीभांति जानते और समझते हैं और उसके आधार पर परीक्षा भी दे देते हैं I चिकित्सा-विद्यार्थी वास्तव में सही विधि को रट-रट कर याद तो कर लेते हैं, परन्तु उसका अपने शरीर के सन्दर्भ में अवलोकन नहीं करते हैं I दैनिकचर्या में इन छोटी-छोटी परन्तु जीवनीय, वाइटल क्रियाओं का व्यावहारिक पक्ष (एप्लाइड आस्पेक्ट्स) पाठ्यक्रम के तहत नहीं पढाए जाने के कारण और समस्याओं को जानने के अभाव में वर्तमान चिकित्सा शिक्षा के तहत चिकित्सा विद्यार्थियों को जानकारियों का तालाब तो बनाया जा रहा है, परन्तु उन्हें ज्ञान की कल-कल करती नदी बनाने के अवसर नहीं खोजें जा रहे हैं I यही कारण है कि युवा चिकित्सा विद्यार्थी मात्र बीस-तीस सीढियां तेज गति से चढ़ने में ही 60-65 वर्षीय व्यक्ति की हांफने लगते हैं, जबकि उनका मैक्सिमम वोलंटरी वेंटिलेशन औसतन लगभग 140 लीटर/ मिनट पढ़ाया जाता है I मेरा तीन दशकों का आकलन है कि 70-80% चिकित्सा विद्यार्थियों के लंग फंक्शन टेस्ट्स सामान्य मानदण्ड की तुलना में अपेक्षाकृत कम होते हैं I जबकि भावी चिकित्सकों को सुस्वास्थ्य का आदर्श प्रतिमान (रोल मॉडल) भाग होना चाहिए I दुःख का विषय है कि दशकों से सम्पन्न हो रहे भारतीय दिनचर्या आदि पर हो रहे वैश्विक अनुसंधानों को पाठ्यक्रम में स्थान नहीं मिल पा रहा है I दूसरा पक्ष यह है कि गहरी सांस के महत्व और उसकी सुस्वास्थ्य में भूमिका को देखते हुए श्रीदुर्गासप्तशती जैसे ग्रंथों की पाठविधि में स्नान आदि की तरह प्राणायाम करना अनिवार्य माना गया है, यह प्राणायाम अथवा गहरी सांस की व्यावहारिक उपयोगिता और क्रियान्वयन (प्रैक्टिकल इम्प्लीमेंटेशन) है I

मेरा भारत सरकार से निवेदन है कि देश के सभी मेडिकल कॉलेजों को निर्देशित करें कि प्रवेश के समय सभी  विद्यार्थियों के लंग फंक्शन टेस्ट्स (वाइटल कैपेसिटी, टाइडल वॉल्यूम, एमवीवी, पीइएफआर आदि) करवाएं और फिर उनका विश्लेषण करवाया जाए, ताकि यह तो पता चले कि सुस्वास्थ्य के आदर्श प्रतिमान के रूप में स्थापित होने वाले चिकित्सा विद्यार्थी “दम” (फेफड़ों की शक्ति के आधार पर ही दम यानी शक्ति का आकलन किया जाता है, कबड्डी का खेल इसी दम पर ही आधारित है) की दृष्टि से कितने पानी में हैं I ताकि आवश्यकता होने पर उनके फेफड़ों में भी “दम” भरा जा सकें I प्राडक्ट की क्वालिटी का सत्यापन सुनिश्चित किया जाना अनिवार्य माना जाए I

अस्तु, गलत ढंग से ली गई सांस के कारण कोशीकीय स्तर पर ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, कार्बन डाई ऑक्साइड का कम उत्सर्जन होने से वह भी एकत्रित होती जाती है और कोशिकाओं में एसिडिक आयन (H+) बढ़ जाते हैं I इन सबके कारण नैसर्गिक रोग प्रतिरोधी शक्ति क्षीण हो जाती है I

श्वसन चिकित्सा

पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने, अनुसंधानों के आधार पर गहरी सांस को उपचार के रूप में स्थापित कर प्राणायाम को अपना भी लिया और उसका पुस्तकों के रूप में दस्तावेजीकरण भी कर दिया है I डॉ. रिचार्ड पी. ब्राउन, एम.डी. और पेट्रिसिया एल. गरबर्ग, एम.डी., ने एक पुस्तक लिखी है “द हीलिंग पॉवर ऑफ ब्रेथ”, इसके शीर्षक से ही पता चलता है कि प्राणायाम बनाम सांस लेने की विधियों की रोगोपचार में महती भूमिका होती है I

इन चित्रों से सही ढंग सांस लेने का प्रयास किया जा सकता है-

सेण्टर फॉर माइंड बॉडी मेडिसिन, वाशिंगटन के संस्थापक और डाइरेक्टर डॉ. जेम्स गॉर्डोन, एम.डी. पिछले पचास साल से केवल गहरी सांस (डीप बेली रेस्पिरेशन) से अपने रोगियों का सफलतापूर्वक उपचार कर रहे हैं, पूरे विश्वभर में उनके लाखों फालोअर्स हैं I वैश्विक ख्यातिप्राप्त डॉ. जेम्स गॉर्डोन के अनुसंधानों के निष्कर्ष हैं कि गहरी सांस के सतत अभ्यास से तनाव भागने लगता है, मस्तिष्क शान्त और शिथिल हो जाता है, नीन्द अच्छी आती है, दर्दनाशक रसायनों का स्राव होता है, रक्त प्रवाह बढ़ जाता है, टॉक्सिन्स बाहर निकल जाते है और शरीर में फीलगुड रसायन, एंडोर्फिन बढ़ जाते हैं I स्ट्रेस से एसिडिटी बढ़ती है, जो कैंसरकारी हो सकती है, गहरी सांस एसिडिटी को कम कर क्षारीयता बढाती है I स्ट्रेस से मांसपेशियों में तनाव बढ़ता है, और सांस उथली हो जाती है, गहरी सांस उस प्रक्रिया को उलट देती है I डॉ. जेम्स गॉर्डोन ने अपने अनुभवों के आधार पर एक पुस्तक लिखी है, “ट्रान्सफार्मिंग ट्रौमा, द पाथ टू होप एण्ड हीलिंग” I नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट के डॉ. पार्थ प्रतिम बोस के अनुसार गहरी सांस ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस को कम करती है, जो रोगकारक होती है I

डॉ.ओट्टो वारबर्ग को कैंसर के कारणों की खोज के लिए 1931 का नोबल प्राइज मिला था I उनका निष्कर्ष था कि कोशिका के स्तर पर “एच” आयन (एसिडिटी) का बढना और ऑक्सीजन की कमी से कैंसर होते हैं I गहरी सांस से

प्राणवायु की आपूर्ति होती है और कोशिकीय अम्लता भी कम हो जाती है, इसलिए गहरी सांस कैंसर जैसे रोगों में भी प्रभावी सिद्ध हो सकती है I बाबा रामदेव द्वारा व्यापक रूप से प्रचारित विभिन्न प्राणायाम भी गहरी सांस के ही वैदिक संस्करण हैं, सुखद है कि 21 जून को विश्व योग दिवस के माध्यम से प्राणायाम के लाभों का प्रचार-प्रसार और व्यवहार वैश्विक स्तर पर निरन्तर हो रहा है I

आइए ! हम स्वयं भी सही ढंग से सांस लेना सीखें और दूसरों को भी सिखाएं I

डॉ. मनोहर भण्डारी