ये मान रहे थे कि
कुछ भी तयशुदा नहीं था ..
जो घटा
अनायास ही था
यहाँ से भी और शायद वहाँ से भी।
पर घटित का आभास कहीं छठी इंद्रिय को तो था।
हुआ ये कि एक जड़ पर टिके दो शाखा अड़ गये आमने सामने
एक शाखा छाये से हट कर कहीं अपना आसमान और अपनी जमीन ढूँढना चाहता था..
तो दुसरा अपना वर्चस्व खोना नहीं कर पा रहा था बरदाश्त।
जायज जो भी हो पर अपने अपने हक पर अपने लिए दोनों सही थे, गलत कोई भी क्यों होने दे अपने साथ।
इन्हीं लड़ाईयों में जिनके हाथ धन लगा उसने धन लिया
जिसका हाथ खाली रहा वो तन गया ..पर मन बड़ा तो किसी ने नहीं किया।
फिर सब बँट गया.
जान-जहान
मान-अपमान
नाते – रिश्तेदार
नफरत और प्यार
अलगाव का कारण कभी अनायास
या एक तरफा नहीं होता
जाने कबसे उनके रिश्ते के डोर कहीं से घिस रही होती हैं
तो कहीं से पिस रही होती है
तो कहीं कहीं गाँठ पड़ रही होती है।
— साधना सिंह